श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी132. रघुनाथदास जी को प्रभु के दर्शन
कान्ताकटाक्षविशिखा न लुनन्ति यस्य कितनी सुन्दर कल्पना है! उन महापुरुषों का हृदय कितना स्वच्छ और पवित्र होगा, जिन के हृदय में से काम, क्रोध और लोभ-ये तीनों राक्षस निकल गये हों, मन-मन्दिर को अपवित्र बनाने वाले इन दैत्यों के निकलते ही काँच का बना हुआ यह देवालय एकदम स्वच्छ बन जाता है, विषय-विकारों की धूलि से मलिन हुआ यह मन्दिर इन महापापी पेटुओं के चले जाने पर प्रेमरूपी अमृत में अपने -आप ही धुलकर चमचमा ने लगता है, तब उस में प्राणप्यारे आकर विराजमान हो जाते हैं, मन्दिर में उन की प्राण-प्रतिष्ठा होते ही यह देहरूपी बाहरी बरामदा भी उसके दिव्य प्रकाश से चमकने लगता है। अहा! जिस महाभाग के हृदय में प्यारे की त्रैलोक्यपावनी मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा ही चुकी है, उसके चरणस्पर्श से ही विकार एकदम भाग जाते हैं, अहा! उन पतितपावन महानुभावों का जीवन धन्य है। संसार में सुन्दर दीख ने वाले चमक-दमकयुक्त और स्वच्छ- से प्रतीत होने वाले सभी पदार्थ कामोद्दीपन करने वाले हैं। ये पुरुषों को हठात अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं। उनमें से मादक किरणें निकलकर मनुष्यों के मन को बरबस मोह में फँसा लेती हैं। कोई धीर पुरुष ही उनके आकर्षण से बच सकते हैं, वे मनुष्य नहीं साक्षात ईश्वर हैं, नररूप में नारायण हैं, शरीरधारी भगवान हैं, उनकी चरण-धूलि परम भाग्यवान पुरुषों को ही मिल सकती है। महात्मा रघुनाथदास जी उन्हीं पुरुषों में से एक हैं। महात्मा रघुनाथदास जी के पिता दो भाई थे, हिरण्य मजूमदार और गोवर्धन मजूमदार। ये दोनों ही भाई बड़े ही समझदार, कार्यकुशल और लोक-व्यवहार में परम प्रवीण थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि उनक दिनों राजा की ओर से गांवों को ठेका दिया जाता था और ठेका लेने वाले भूम्यधिपति या जमींदार प्रायः कायस्थ या मुसलमान ही होते थे, ये दोनों भाई भी कुलीन कायस्थ थे और बादशाह की ओर से इन्हें 'मजूमदार' की उपाधि मिली थी। ये वर्तमान तीसबीघा नामक नगर के समीप सप्तग्राम नाम के ग्राम में रहते थे। उन दिनों सप्तग्राम गंगातट पर होने के कारण वाणिज्य-व्यापार की एक अच्छी मण्डी समझा जाता था, कारण कि उन दिनों व्यापार प्रायः नौ काओं द्वारा ही होता था। इनके इलाके की उस समय की आमदनी लगभग बीस लाख रूपये सालाना की थी, उस में से ये बारह लाख तो बादशाह को दे देते थे और शेष आठ लाख अपने पास रख लेते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ स्त्रियों के कटाक्षरूपी बाण जिस के हृदय को नहीं बेधते अर्थात् जो स्त्रियों के हाव-भाव-कटाक्षों से घायल नहीं होता, जिस के चित्त को क्रोधरूपी अग्नि सन्ताप नहीं पहुँचा सकती और जिसे प्रचुर विषय लोभरूपी पाशों से अपनी ओर नहीं खींच सकते यानी जिस की दृष्टि में संसारी सभी भोग तृण के समान हैं, वह धीर महापुरुष इस सम्पूर्ण त्रिलोकी को बात- की-बात में जीत सकता है। सु. र. भां. 81।12