श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी125. प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार
मनसि वचसि काये प्रेमपीयूषपूर्णा- महाप्रभु गौरांगदेव के सार्वभौम भट्टाचार्य ने एक स्रोत में एक सौ आठ नाम बताये हैं। उनमें से एक नाम मुझे अत्यन्त ही प्रिय है वह है 'अदोष-दर्शी'। सचमुच महाप्रभु अदोष-दर्शी थे, वे मुख से ही दूसरों की बुराई न करते हों, यही नहीं, किन्तु वे लोगोंके दोषों की ओर ध्यान नही नहीं देते थे। उनके जीवन मे कटुता कहीं भी नहीं पायी जाती। वे बड़ो के सामने सदा सुशील बने रहते। संन्यासी होने पर भी उन्होंने कभी संन्यासीपने का अभिमान नहीं किया, सदा अपने से ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध पुरुषों के सामने वे नम्रतापूर्वक बर्ताव करते। सदा उनके लिये सम्मानसूचक सम्बोधन का प्रयोग करते। छोटे भक्तों से अत्यन्त ही स्नेह के साथ और अपने बड़प्पन को भुलाकर इस प्रकार बातें करते कि उस समय अपने में और उसमें किसी प्रकार का भेद-भाव न रहने देते। इन्हीं सब कारणों से तो भक्त इन्हें प्राणों से अधिक प्यार करते और अपने को सदा प्रभु की इतनी असीम कृपा के भार से दबा हुआ-सा समझते। जहाँ अत्यन्त ही प्रेम होता है, वहीं भगवान प्रकट हो जाते हैं। भगवान का न कोई एक निश्चित रूप है, न कोई एक ही नियत नाम। नाम-रूप से परे होने पर भी उनके असंख्यों रूप हैं और अगणित नाम हैं। जिसे जो नाम प्रिय हो उसी नामरूप द्वारा प्रभु प्रकट हो जाते हैं। भगवान प्रेममय तथा भावमय हैं। जहाँ भी प्रेम हो जाय, जिसमें भी दृढ़ भावना हो जाय, उसके लिये वही सच्चा ईश्वर का स्वरूप है, तभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।। जब प्रेमपात्र अपने प्यारे के असीम अनुकम्पा के भार से दबने लगता है, तब उसकी स्वतः ही इच्छा होती है कि मैं अपने प्यारे के गुणों का बखान करूँ। वह ऐसा करने के लिये विवश हो जाता है। उससे उसकी बिना प्रशंसा किये रहा ही नहीं जाता। प्रेम में यही तो विशेषता है। प्रेमी अपने आनन्द को सब में बाँटना चाहता है। वह स्वार्थी पुरुष के समान स्वयं अकेला ही उसकी मधुमय मिठास से तृप्त होना नहीं चाहता। दूसरों को भी उस अद्भुत रस का आस्वादन कराने के लिये व्यग्र हो उठता है। उसी व्यग्रता में वह विवश होकर अपने उपास्यदेव के गुण गाने लगता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो मन, वाणी और शरीर में प्रेमरूपी अमृत से भरे हुए हैं, उपकार-परम्पराओं से जो त्रिभुवन को प्रसन्न करते हैं और दूसरों के छोटे-से-छोटे गुण को भी पर्वत के समान विशाल मानकर जो मन-ही-मन प्रफुल्लित होते हैं, ऐसे सच्चे संत इस वसुधातलपर कितने हैं? अर्थात पृथ्वी को अपनी पदधूलि से पावन बनाने वाले ऐसे संत महापुरुष लाखों में कोई बिरले ही होते हैं।