श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी124. नित्यानन्द जी का गृहस्थाश्रम में प्रवेश
न मय्येकान्तभक्तानां गुणदोषोद्भवा गुणाः। नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः। महापुरुषोंके जीवनमें कहीं-कहीं धर्म-व्यतिक्रम पाया जाता है; इनका क्या कारण है ? इसका ठीक-ठीक उत्तर दिया नहीं जाता है; परन्तु उनके वैसे कार्योंके अनुकरण न करनेकी आज्ञा शास्त्रोंमें मिलती है। ब्रह्मातक पहुँचे हुए निर्मलचेता ऋषि-महर्षियोंने वेदमें स्पष्ट रूपसे अपने अनुयायी शिष्योंसे कहा है- यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपासितव्यानि नो इतराणि। हमारे जो अच्छे काम हों तुम्हें उन्हीं का आचरण करना चाहिये। अन्य जो हमारे जीवन में निषिद्ध आचरण दीखें उनका अनुकरण कभी भी न करना चाहिये। परन्तु ईश्वर और महापुरुषोंके कार्योंकी निन्दा भी नहीं करनी चाहिये। महर्षियों ने महापुरुषों के कार्यों की आलोचना और निन्दा करने को पाप बताया है। जो महापुरुषों के कार्यों की निन्दा किया करते हैं वे अबोध बन्धु भूल करते हैं। साथ ही वे भी भूल करते हैं जो निन्दकों को सदा कोसा करते हैं। निन्दकों का स्वभाव तो निन्दा करने का है ही। उनकी निन्दा करके तुम अपने सिर पर दूसरा पाप क्यों लेते हो ? निन्दक तो सचमुच उपकारी है। संसार में यदि बूरे कामों की निन्दा होनी बंद हो जाय, तो यह जगत सचमुच रौरव नरक बन जाय। महापुरुष और निन्दा से डरते नहीं, उनका तो लोकनिन्दा कुछ बिगाड़ नहीं सकती। नीच प्रकृति के लोग लोकनिन्दा के भय से बुरे कामों को छिपाकर करते हैं और सर्वधारण लोग लोकनिन्दा के ही भयसे पाप-कर्मों में प्रवृत्त नहीं होती। इसलिये लोकनिन्दा समाजरूपी वृक्ष को सुरक्षित बनाये रहनेके लिये उसके आसपास में लगे हुए काँटों के समान है। इससे पापरूपी पशु उस पेड़को एकदम नष्ट नहीं कर सकते। इसलिये परमार्थ-पथके पथिक को न तो महापुरुषों के ही बुरे आचरणों की निन्दा करनी चाहिये और न उनकी निन्दा करने वाले निन्दकों की ही निन्दा करनी चाहिये। निन्दा-स्तुति से एकदम उदासीन होना ही परम श्रेयस्कर है। यदि कुछ कहे बिना रहा ही न जाय, तो सदा दूसरे के गुणों का ही कथन करना चाहिये और लोगों के छोटे गुणों को भी बढ़ाकर कहना चाहिये और उसे अपने जीवन में परिणत करना चाहिये। अस्तु। नित्यानन्द जी के रहन-सहन की खूब आलोचना होने लगी। लोग उनकी निन्दा करने लगे। निन्दा का विषय ही था, एक अवधूत त्यागी को ऐसा आचरण करना लोकदृष्टि में अनुचित समझा जाता है। जब वे संन्यास छोड़कर गृहस्थी हो गये तब तो उनकी निन्दा और भी अधिक होने लगी। मालूम पड़ता है, उसी निन्दा के खण्डन में 'चैतन्य-भागवत' की रचना हुई है। चैतन्य-भागवत में श्रीचैतन्य-चरित को प्रधानता नहीं दी है, उनमें तो नित्यानन्द जी के गुणों का विशेष रीति से वर्णन है और नित्यानन्द जी पर विश्वास न करने वाले लोगों को भरपेट कोसा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 11।20।36
- ↑ श्रीभगवान कहते हैं- जिनका चित्त सम हो गया है, जो बुद्धिसे परे चले गये हैं ऐसे मेरे एकान्त भक्त साधु पुरुषों के गुण-दोषों का विचार न करना चाहिये। उनके लिये न तो कोई गुण ही है, न दोष। परन्तु असमर्थ पुरुष कभी मन से भी उनकी देखा-देखी आचरण न करे (बल्कि उनके उपदेशों पर चले)। भगवान शंकर जिस प्रकार समुद्र का विष पी गये उसी प्रकार यदि कोई मूर्खतावश करे तो उसका विनाश ही होता है। श्रीमद्भा. 11।20।31