श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी122. सार्वभौमके घर भिक्षा और अमोघ-उद्धार
सार्वभौमगृहे भुंजन् स्वनिन्दकममोघकम्। गौड़ीय भक्तों के चले जाने के अनन्तर सार्वभौम भट्टाचार्य ने प्रभु के समीप आकर निवेदन किया- 'प्रभो! अब तक तो मैंने भक्तों के कारण कहने में संकोच किया, किन्तु अब तो भक्त चले गये। अब मैं एक प्रार्थना करना चाहता हूँ, उसे आपको स्वीकार करना होगा। 'प्रभु ने कुछ प्रेमपूर्वक व्यंग करते हुए कहा- 'सब बातों को पहले ही स्वीकार करा लिया करें, तब बताया करें यह भी कोई बात हुई, बताइये क्या बात है, जो मानने योग्य होगी तो मान लूँगा और न मानने योग्य होगी तो 'न' कर दूँगा।' भट्टाचार्य ने कहा- 'नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मानने तो योग्य है।' प्रभु ने जल्दी से कहा- 'जब पहले से ही मालूम है कि बात मानने योग्य है, तब संदेह ही क्यों किया? अच्छा, खैर सुनूँ भी तो कौन-सी बात है ?' कुछ सोचते-सोचते धीरे-धीरे भट्टाचार्य सार्वभौम ने कहा- 'मेरी भी इच्छा है और षाठी (भट्टाचार्य की छोटी पुत्री) की माता भी बहुत दिनों से पीछे पड़ रही है कि प्रभु को कुछ काल तक निरन्तर ही अपने घर लाकर भिक्षा करायी जाय। आप अधिक दिनों तो हमारी भिक्षा स्वीकार ही क्यों करेंगे, किन्तु कम-से-कम एक मासपर्यन्त तो अपनी चरण-धूलि से हमारे नये घर को पवित्र बनाइये ही। यही मेरी प्रार्थना है।' प्रभु ने जोरों से हंसते हुए कहा- 'आप तो कहते थे, मानने योग्य बात है। इस बात को भला कोई संन्यासी स्वीकार कर सकता है कि एक महीने तक निरन्तर एक ही आदमी के यहाँ भिक्षा करता रहे। संन्यासी के लिये तो घर-घर से मधुकारी मांगकर उदरपूर्ति करने का विधान है।' भट्टाचार्य ने कहा- 'प्रभो! इन सब बातों को रहने दीजिये। आप इस प्रार्थना को स्वीकार करके हमारी तथा हमारे सब परिवार की इच्छापूर्ति कीजिये।' प्रभु ने आश्चर्य-सा प्रकट करते हुए कहा- 'आचार्य! आप भी जब ऐसे धर्मविरुद्ध काम के लिये मुझे विवश करेंगे, तो फिर मूर्ख भक्तों की तो बात ही अलग रही। एक-दो दिन कहें तो भिक्षा कर भी लूँ।' अन्त में पांच दिन की भिक्षा बहुत वाद-विवाद के पश्चात् निश्चित हुई। भट्टाचार्य प्रभु को एकान्त में ही भोजन कराना चाहते थे। इसलिये प्रभु के साथी अन्य साधु-महात्माओं को दूसरे-दूसरे दिनों के लिये निमन्त्रित किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गौरमहाप्रभु ने सार्वभौम के घरमें भोजन करते समय अपने निन्दक (सार्वभौम के जामाता) अमोघ भट्टाचार्य को अंगीकार करके अपनी भक्तवत्सलता प्रकट की। चैत. चरि. म. ली. 15।1