श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी121. भक्तों की विदाई
यास्यत्यद्य शकुन्तलेति हृदयं संस्पृष्टमुत्कण्ठया भक्तों की विदाई का समय समीप आ गया। महाप्रभु अत्यन्त ही स्नेह से, बड़े ही ममत्व से सभी भक्तों से पृथक पृथक एकान्त में मिलने लगे। उनसे उनके मन की बात पूछते, आप अपने मन की बात बताते, उनका आलिंगन करते, उनके हाथ से थोड़ा प्रसाद पा लेते, स्वयं उन्हें अपने हाथ से प्रसाद देते, इस प्रकार भाँति-भाँति से प्रेम प्रदर्शित करके वे सभी भक्तों को सन्तुष्ट करने लगे। सभी भक्तों को यह अनुभव होने लगा कि महाप्रभु जितना अधिक स्नेह हमसे करते हैं, उतना शायद ही किसी दूसरे से करते हों। सभी को इस बात का गर्व सा था कि प्रभु का सर्वापेक्षा हमारे ही ऊपर अत्यधिक अनुराग है। यही तो उनकी महत्ता थी। जिस समय सभी प्राणियों में आत्मभावना हो जाती है, जब सभी अपने प्यारे के स्वरूप दीखने लगते हैं, तब सबको ही हृदय से चिपटा लेने की इच्छा होती है। सभी हृदयवान भावुक भक्त उसे हृदय से प्यार करने लगते हैं, सभी उसे अपना ही आत्मा समझते हैं। उस अवस्था में मोह कहाँ? शोक कैसा? सर्वत्र आनन्द ही आनन्द! जिधर देखो उधर ही शुद्ध प्रेम ही दिखायी पड़ता है। प्रेम में संदेह, ईर्ष्या, डाह और किसी को छोटे समझने के भाव ही नहीं रहते। ऐसे महापुरुष के संसर्ग में रहकर सभी मनुष्य अपनी खोटी वृत्तियों को भुला देते हैं और वे सदा प्रेमासव में छके से रहते हैं। सबसे पहले प्रभु ने नित्यानन्द जी को बुलाया और उनसे एकान्त में बहुत देर तक बातें करते रहे और उन्हें गौड़-देश में जाकर भगवन्नाम प्रचार करने के लिये राजी किया। आपने उन्हें आज्ञा दी-‘गौड़ देश में जाकर ब्राह्मण से लेकर चाण्डालपर्यन्त सभी को भगवन्नाम का उपदेश करो। ये रामदास, गदाधर आदि बहुत से भक्त तुम्हारे काम में योगदान देंगे। मंगलमय भगवान तुम्हारा कल्याण करें, मैं भी तुम्हें गुप्तरूप से सदा तुम्हारे साथ ही रहूँगा।’ फिर आपने अद्वैताचार्य से कहा- ‘आचार्य ! आप ही हम सब लोगों के श्रेष्ठ, मान्य, गुरु, पूज्य और अग्रणी हैं। आप ऐसा उद्योग सदा करते रहें कि भक्तवृन्द संकीर्तन से विमुख न हो जायँ, इन्हें आप संकीर्तन के लिये सदा प्रोत्साहित करते रहियेगा।’ इसके अनन्तर श्रीवास पण्डित की बारी आयी। प्रभु ने उनसे कहा- ‘पण्डित जी ! आपके ऋण से तो हम कभी उऋण ही नहीं हो सकते। आपने तो हमें सचमुच खरीद लिया है, इसलिये आपके आंगन में जब भी संकीर्तन होगा, उसमें सदा हम गुप्तभाव से अवस्थित रहेंगे और सदा आपके आंगन में नृत्य करते रहेंगे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शकुन्तला की विदाई के समय भगवान कण्व ऋषि कहते हैं- ‘आज शकुन्तला चली जायगी, इस कारण हृदय उत्कण्ठित हो गया है, गले में रुँधे हुए अश्रुवेग से डबडबायी हुई मेरी आँखें चिन्ता से स्तब्ध हो रही है।’ ‘यदि स्नेहवश मुझ (वीतराग) वनवासी को ऐसी विकलता है तो भला गृहस्थजन पुत्री के नूतन वियोगजन्य शोकों से कैसे नहीं पीड़ित होते होंगे। (अपने प्यारे के वियोग से दु:ख का अनुभव नहीं होता, वह या तो पशु है या इन्द्रियों को बलपूर्वक रोकने वाला महान योगी)।’ शकुन्तला नाटक