श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी120. पुरी में भक्तों के साथ आनन्द विहार
परिवदतु जनो यथा तथा वा आनन्द और उल्लास को विध्वंस करने वाली राक्षसी चिन्ता ही है। संसार चिन्ता का घर है। संसारी लोगों के धन की, मान प्रतिष्ठा, स्त्री-बच्चों की तथा और हजारों प्रकार की चिन्ताएँ लगी रहती हैं। उन चिन्ताओं के ही कारण उनका आनन्द एकदम नष्ट हो जाता है और वे सदा अपने को विपद्ग्रस्त सा ही अनुभव करते रहते हैं। जिन्हें संसारी भोगों को संग्रह करने की चिन्ता है, उन्हें सुख कहाँ? वे बेचारे आनन्द का स्वाद क्या जानें। आनन्द की मिठास तो भोगों की इच्छाओं से रहित वीतरागी प्रभु प्रेमी ही जान सकते हैं। आनन्द भोगों न होकर उनकी हृदय से इच्छा न करने में ही है। इसीलिये परमार्थ के पथिक विषय-भोगों का परित्याग करके पुण्य-तीर्थों में या वनों में जाकर निवास करते हैं। संसारी लोगों पर भी इन पुण्य स्थानों का प्रभाव पड़ता है। किसी धनिक के धर जाकर हम मिलते हैं, तो उसे मान-अपमान, स्त्री-पुत्र तथा परिवार के चिन्ताजनक वायुमण्डल में घिरा हुआ देखते है, वहाँ वह हमसे न तो खूब प्रेमपूर्वक मिलता ही है और न खुलकर बातें ही करता है। उसी से जब किसी विरक्त साधु महात्मा के स्थान पर, किसी पवित्र देवस्थान अथवा जगन्मान्य पुण्यतीर्थ पर मिलते हैं तो वह बड़ी ही सरलता से मिलता है, हंसता है, खेलताह है और बच्चों की तरह निष्कपट बातें करता है। इसका कारण यह है कि उसके हृदय में आनन्द का अंश भी है और चिन्ता का भी। घर पर चिन्ता के परमाणुओं का प्राबल्य होने से वह उन्हीं के वशीभूत रहता है। आनन्द की पवित्र इच्छा यदि उसके हृदय में होती ही नहीं, तो वह सदाचारी एकान्तप्रिय महात्माओं के पास जाने ही क्यों लगा? उनके पास जाने से प्रतीत होता है कि वह सच्चे आनन्द का भी उत्सुक है और उसके आनन्दमय भाव महापुरुष की संगति में ही आकर पूर्णरीत्या परिस्फुटत होते हैं, इसीलिये तो कहा है सदाचारी और कल्याण-मार्ग के जाने वाले सद्गृहस्थ को भी सालभर में दो एक महीनों के लिये किसी पवित्र स्थान में या किसी महापुरुष के संसर्ग में रहना चाहिये। इससे उसे परमार्थ के पथ में बहुत अधिक सहायता मिल सकती है और इन स्थानों के सेवन से उसे सच्चे आनन्द का भी कुछ-कुछ अनुभव हो सकता है। गौड़ीय भक्त घर-बार की चिन्ता छोड़कर चार महीने प्रभु के चरणों में रहने के लिये आये थे। एक तो वे वैसे ही भगवद्भक्त थे, उस पर भी महाप्रभु के परम कृपापात्र थे और संसारी भोगों से एकदम उदासीन थे। तभी तो उन्हें पुरुषोत्तम जैसे परम पावन पुण्यक्षेत्र में प्रेमावतार श्रीचैतन्यदेव की संगति में इतने दिनों तक निवास करने का सौभाग्य प्राप्त हो सका। महाप्रभु तो आनन्द की मूर्ति ही थे, उनकी संगति परम आनन्द का अनुभव होना अनिवार्य ही था। इसीलिये चार महीनों तक भक्तों को प्रभु के साथ बड़ा ही आनन्द रहा। महाप्रभु भी उनके साथ नित्य भाँति-भाँति की नयी नयी क्रीडाएँ किया करते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बकवादी लोग जैसा चाहें वैसा अपवाद किया करें, हम उस पर ध्यान नहीं देंगे, हम तो बस हरिनाम-रस की मदिरा के नशे में मस्त हो भूमि पर नाचेंगे, लोटेंगे और लोटते-लोटते बेसुध हो जायँगे। चैत. चरि.