श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी118. श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा
स जीयात कृष्णचैतन्य: श्रीरथाग्रे ननर्त य:। गुण्टिचा (उद्यान मन्दिर) के मार्जन के दूसरे दिन नेत्रोत्सव था। महाप्रभु अपने सभी भक्तों को साथ लेकर जगन्नाथ जी के दर्शन के लिये गये। पंद्रह दिनों के अनवसर के अनन्तर आज भगवान के दर्शन हुए हैं, इससे महाप्रभु को बड़ा ही हर्ष हुआ। वे एकटक लगाये श्रीजगन्नाथ जी के मुखारविन्द की ओर निहार रहे थे। उनकी दोनों आखों में से अश्रुओं की दो धाराएँ बह रही थीं। उनके दोनों अरुण ओष्ठ नवपल्लवों की भाँति हिल रहे थे और वे धीरे-धीरे जगन्नाथ जी से कुछ कह रहे थे, मानो इतने दिन के वियोग के लिए प्रेमपूर्वक उलाहना दे रहे हों। दोपहर तक महाप्रभु अनिमेष भाव से भगवान के दर्शन करते रहे। फिर भक्तों के सहित आप अपने स्थान पर आये और महाप्रसाद पाकर फिर कथा-कीर्तन में लग गये। दूसरे दिन जगन्नाथ जी की रथ यात्रा का दिवस था। प्रभु के आनन्द की सीमा नहीं थी। वे प्रात:काल होने के लिये बड़े ही आकुल बने हुए थे। मारे हर्ष के उन्हें रात्रिभर नींद ही नहीं आयी। रात भर वे प्रेम में बेसुध हुए जागरण ही करते रहे। दो घड़ी रात्रि रहते ही आप उठकर बैठ गये और सभी भक्तों को भी जगा दिया। शौच स्नानादि से निवृत्त होकर सबके साथ महाप्रभु ‘पाण्डुविजय’ के दर्शन के लिये चले। ज्येष्ठ की पूर्णिमा से लेकर आषाढ़ की अमावस्या तक भगवान महालक्ष्मी के साथ एकान्त में वास करते हैं। प्रतिपदा के दिन नेत्रोत्सव होता है तभी जगन्नाथ जी के दर्शन होते हैं। द्वितीया या तृतीया को रथ पर चढ़कर भगवान श्रीराधिका जी के साथ एक सप्ताह से अधिक निवास करने के लिये सुन्दराचल को प्रस्थान करते हैं। वही रथ यात्रा कहलाती है! जिस समय रथ जाता है उसे ‘रथ यात्रा’ कहते हैं और विश्राम के पश्चात जब रथ लौटकर मन्दिर की ओर आता है उसे ‘उलटी रथ-यात्रा’ कहते हैं। रथ-यात्रा के समय तीन रथ होते हैं। सबसे आगे जगन्नाथ जी का रथ होता है, उनके पीछे बलराम जी तथा सुभद्रा जी के रथ होते हैं। भगवान का रथ बहुत विशाल होता है, मानो छोटा-मोटा पर्वत ही हो। सम्पूर्ण रथ सुवर्णमण्डित होती है। उसमें हजारों घण्टा, टाल, किंकिणी तथा घागर बँधे रहते हैं। उसकी छतरी बहुत ऊँची और विशाल होती है। उसमें भाँति-भाँति की ध्वजा-पताकाएँ फहराती रहती हैं। वह एक छोटे मोटे नगर के ही समान होता है। सैकड़ों आदमी उसमें खड़े हो सकते हैं। चारों ओर बड़े बड़े शीशे लटकते रहते हैं। सैकड़ों मनुष्य स्वच्छ सफेद चंवरों को डुलाते रहते हैं। उसके चंदवें मूल्यवान रेशमी वस्त्रों के होते हैं तथा सम्पूर्ण रथ विविध प्रकार के चित्रपटों से बहुत ही अच्छी तरह से सजाया जाता है। उसमें आगे बहुत ही लम्बे और मजबूत रस्से बँधे होते हैं, जिन्हें मनुष्य ही खींचते हैं। भगवान के रथ को गुण्टिचा भवन तक मनुष्य ही खींचकर ले जाते हैं। उस समय का दृश्य बड़ा ही अपूर्व होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन्होंने रथ के आगे ऐसा नृत्य किया जिससे समस्त जगत तथा साक्षात जगन्नाथ जी भी विस्मित हो गये, उन श्रीकृष्ण चैतन्य भगवान की जय हो। चैत. चरि. म. ली. 13/1