श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी117. गुण्टिचा (उद्यान मन्दिर) मार्जन
श्रीगुण्टिचामन्दिरमात्मवृन्दै: संसार में असंख्यों घटनाएं रोज घटित होती हैं। माता से छिपकर मिट्टी प्राय: सभी बच्चे खाते हैं, सभी गोपालों के बालक गौएं चराने जाते हैं और अपने हाथों में दही-भात और टैंटी (कैर) का अचार रखकर वहीं खाते हैं। गोपियों की भाँति न जाने कितनी प्रेमिकाएँ अपने प्रियतमों के लिये रोती रहती होंगी। सुदामा के समान धनहीन बहुत से मित्र अपने धनिक मित्रों से मान सम्मान तथा धन पाते होंगे; किन्तु उनका नाम कोई भी नहीं जानता। कारण, उनमें प्रेम की वह पराकाष्ठा नहीं है। भगवान तो प्रेम के सजीव विग्रह थे। प्रेम के संसर्ग होने से ये सभी घटनाएँ अमर हो गयीं और प्रेमी भक्तों के प्रेमवर्धन करने की सर्वोत्तम सामग्री बन गयीं। असल में प्रेम ही सत्य है, प्रेमपूर्वक किये जाने वाले सभी काम प्रेम की ही भाँति अजर-अमर और अमिट होते हैं। प्रेम के साथ प्राणों का भी परित्याग करने पड़े तो वह भी सुखकर प्रतीत होता है। अपने प्रेमी के साथ मरने में मीठा मीठा मजा आता है। प्रेम के सामने दु:ख कैसा। सन्ताप का वहाँ नाम नहीं; थकान, आलस्य या विषण्णता का एकदम अभाव होता है। यदि एक ही उद्देश्य के एक से ही मनवाले दस बीस पचास प्रेमी बन्धु हों तो फिर बैकुण्ठ के सुख का अनुभव करने के लिये अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं होती। वैकुण्ठ का सुख उनकी संगति में ही मिल जाता है। उनके साथ प्रेमपूर्वक मिलकर जो भी कार्य किया जाता है, वही प्रेममय होने के कारण आनन्दमय और हर्षमय ही होता है। महाप्रभु गौड़ीय भक्तों के साथ नित्य नयी नयी क्रीड़ाएँ करते थे। उनका भोजन, भजन, स्नान, संकीर्तन तथा हास-परिहास सभी प्रेममय ही होता था। सभी भक्त क्रमश: नित्य प्रति महाप्रभु को अपने अपने यहाँ भिक्षा कराते। महाप्रभु भी एक-एक दिन में भक्तों की प्रसन्नता के निमित्त तीन तीन, चार-चार स्थानों में थोड़ा-थोड़ा भोजन कर लेते। वे भक्तों को साथ लेकर ही मन्दिर में जाते, उनके साथ ही स्नान करते और सबको पास बिठाकर ही प्रसाद पाते। इस प्रकार धीरे धीरे रथयात्रा का समय समीप आने लगा। पंद्रह दिनों तक एकान्त में महालक्ष्मी के साथ एकान्तवास करने पर अनन्तर जगन्नाथ जी के पट खुलने का समय भी सन्निकट ही आ पहुँचा। नेत्रोत्सव के एक दिन पूर्व महाप्रभु ने एक प्रेम कुतूहल करने का निश्चय किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीगौरांग महाप्रभु ने अपने आत्मीय भक्तों के सहित श्रीगुण्टिचाभवन का मार्जन तथा क्षालन करके उसे अपने शीतल और निर्मल चित्त की भाँति खूब स्वच्छ और पवित्र बनाकर श्रीकृष्ण के बैठने योग्य बना दिया।’ काम क्रोधादि से मलिन हुए मन में श्रीकृष्ण बैठ ही कैसे सकते है? चैतन्य की कृपा हो तो वह वाटिका परिष्कृत हो सकती है। चैत. चरि. म. ली. 12/1