श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी115. भक्तों के साथ महाप्रभु की भेंट
यस्यैव पादाम्बुजभक्तिलभ्य: महाप्रभु अपने भक्तों से मिलने के लिये व्याकुल हो रहे थे, आज दो वर्ष के पश्चात वे अपने सभी प्राणों से भी प्यारे भक्तों से पुन: मिलेंगे, इस बात का स्मरण आते ही प्रभु प्रेम सागर मे डुबकियाँ लगाने लगते। इतने में ही उनके कानों में संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि सुनायी पड़ी। उस नवद्वीपी ध्वनि को सुनते ही, प्रभु को श्रीवास पण्डित के घर की एक एक करके सभी बातें स्मरण होने लगीं। प्रभु के हृदय में उस समय भाँति-भाँति के विचार उठ रहे थे, उसी समय उन्हें सामने से आते हुए अद्वैताचार्य जी दिखायी दिये। प्रभु ने अपने परिकर के सहित आगे बढ़कर भक्तों का स्वागत किया। आचार्य ने प्रभु के चरणों में प्रणाम किया, प्रभु ने उनका गाढ़ालिंगन किया और बड़े ही प्रेम से अश्रु-विमोचन करते हुए वे आचार्य से लिपट गये। उस समय उन दोनों के सम्मिलन-सुख का उनके सिवा दूसरा अनुभव ही कौन कर सकता है? इसके अनन्तर श्रीवास, मुकुन्ददत्त, वासुदेव तथा अन्य सभी भक्तों ने प्रभु के चरणों में प्रणाम किया। प्रभु सभी को यथायोग्य प्रेमालिंगन प्रदान करते हुए सभी की प्रशंसा करने लगे। इसके अनन्तर आप वासुदेव जी से कहने लगा- ‘वसु महाशय ! आप लोगों के लिये मैं बड़े ही परिश्रम के साथ दक्षिण देश से दो बहुत ही अदभुत पुस्तकें लाया हूँ। उनमें भक्तितत्त्व का सम्पूर्ण रहस्य भरा पड़ा है।’ इस बात से सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई और सभी ने उन दोनों पुस्तकों की प्रतिलिपी कर ली। तभी से गौरभक्तों में उन पुस्तकों का अत्यधिक प्रचार होने लगा। महाप्रभु सभी भक्तों को बार बार निहार रहे थे, उनकी आँखें उस भक्त मण्डली में किसी एक अपने अत्यन्त ही प्रिय पात्र की खोज कर रही थीं। जब कई बार देखने पर भी अपने प्रिय पात्र को न पा सकी तब तो आप भक्तों से पूछने लगे- ‘हरिदास जी दिखायी नहीं पड़ते, क्या वे नहीं आये हैं?’ प्रभु के इस प्रकार पूछने पर भक्तों ने कहा- ‘वे हम लोगों के साथ आये तो थे, किन्तु पता नहीं बीच में कहाँ रह गये।’ इतना सुनते ही दो चार भक्त हरिदास जी की खोज करने चले। उन लोगों ने देखा महात्मा हरिदास जी राजपथ से हटकर एक एकान्त स्थान में वैसे ही जमीन पर पड़े हुए हैं। भक्तों ने जाकर कहा- ‘हरिदास! चलिये, आपको महाप्रभु ने याद किया है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिनके ही चरण कमलों की भक्ति द्वारा ‘प्रेम’नामक परम पुरुषार्थ सुलभ है उन जगत के मंगलों के भी मंगलस्वरूप श्रीचैतन्यदेव को बार बार प्रणाम है।