श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी114. गौर भक्तों का पुरी में अपूर्व सम्मिलन
वाञ्छाकल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च। अहा ! कितना सुखद संवाद है, हृदय को प्रफुल्लित कर देने वाला यह कैसा मनोहारी वृत्तान्त है। आपने प्रिय के सम्मिलन-सुख को सुनकर ऐसा कौन हृदयहीन जड बुद्धि पुरुष होगा, जिसका मन कमल लिख न उठता हो। नीतिकारों ने ठीक ही कहा है- ‘अमृतं प्रियदर्शनम्।’ इस संसार में अपने प्यारे से भेंट होना ही सर्वोत्तम अमृत है। जो इस अमृत का निरन्तर पान करते रहते हैं, ऐसे भक्तों के चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम है। महाप्रभु के पुरी पधारने का समाचार सुनते ही गौर-भक्तों के आनन्द की सीमा नहीं रही। बहुत से भक्त तो प्रभु के साथ संकीर्तन सुख का आनन्द अनुभव कर चुके थे। बहुत से ऐसे भी थे, जिन्होंने अभी तक महाप्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन ही नहीं किये थे। उन्होंने प्रभु के बिना दर्शन किये ही उन्हें आत्मसमर्पण कर दिया था। आज उनके आनन्द का कहना ही क्या है, सभी भक्त प्रभु के दर्शन की खुशी में अपने आप को भूले हुए हैं। सभी ने पुरी में चलकर प्रभु के दर्शनों का निश्चय किया। सभी भक्तों के अग्रणी आचार्य अद्वैत ही थे। उनकी सम्मति हुई कि हम लोगों को पुरी के लिये शीघ्र ही प्रस्थान कर देना चाहिये, जिससे आषाढ़ में होने वाली भगवान की रथयात्रा में भी सम्मिलित हो सकें और बरसात के चार महीने प्रभु के समीप ही बितावें। यह सम्मति सबको पसंद आयी, सभी अपने अपने घरों का चार महीने का प्रबन्ध करके पुरी जाने के लिये तैयार हो गये। श्रीवास आदि सभी भक्तों ने शचीमाता से प्रभु के समीप जाने के लिये विदा मांगी। वात्सल्यमयी जननी ने अपने संन्यासी पुत्र के लिये भाँति-भाँति की वस्तुएँ भेजीं। भक्तों ने उन सभी वस्तुओं को सावधानीपूर्वक अपने साथ रख लिया और वे माता की चरण-वन्दना करके पुरी के लिये चल दिये। लगभग 200 भक्त गौरगुण गाते हुए और ढोल करताल के साथ संकीर्तन करते हुए पैदल ही चले। आगे आगे वृद्ध अद्वैताचार्य युवा पुरुष की भाँति प्रभु के दर्शन की उत्सुकता के कारण जल्दी जल्दी चल रहे थे, उनके पीछे सभी भक्त नवीन उत्साह के साथ- हरिहरये नम: कृष्णयादवाय नम:। -इस पद का संकीर्तन करते हुए चल रहे थे। इस प्रकार चलते चलते 20 दिन में वे पुरी के निकट पहुँच गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कामनाओं के कल्पवृक्ष, करुणा के सागर और पतितों के पवित्र करने वाले विष्णुभक्तों को नमस्कार है। चैत. म. भा.