श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी107. धनी तीर्थराम को प्रेम और वेश्याओं का उद्धार
कमल के समान विकसित मुखारविन्द पर हठात चित्त को अपनी ओर आकर्षित करने वाली दो बड़ी-बड़ी आँखें थीं। उसकी समझ में ही नहीं आया कि इतनी अतुलनीय रूपराशि से युक्त यह पुरुष यहाँ जंगल में अकेला एक कपड़ा ओढ़े क्यों पड़ा है। अपने सन्देह को मिटाने के लिये उसने धीरे से कहा-‘कौन है।’ किन्तु महाप्रभु तो अपने कीर्तनानन्द में मग्न थे, उन्हें किसी का क्या पता। वे पूर्ववत जोरों से कीर्तन करते रहे। उसकी उत्सुकता और भी बढ़ी। उसने अब के जरा जोर से कहा- ‘आप कौन हैं और यहाँ एकान्त में क्यों पड़े हैं ?’ कृपामय श्रीचैतन्य ने अब के उसकी बात का उत्तर दिया- ‘भाई ! हम गृहत्यागी संन्यासी हैं, अपने प्यारे की तलाश में घर से निकले हैं। एकान्त ही हमारा आश्रय है, वैराग्य ही हमारा बन्धु है, संकीर्तन ही हमारा एकमात्र कर्तव्य है, इसीलिये हम यहाँ एकान्त में पड़े अपने प्यारे के नामों का उच्चारण कर रहे हैं।’ इतना कहकर महाप्रभु फिर पूर्ववत कीर्तन करने लगे। इस उत्तर को पाकर तीर्थराम को सन्तुष्ट हो जाना चाहिये था और महाप्रभु को छोड़कर वेश्याओं के साथ अन्यत्र चले जाना चाहिये था। किन्तु उसका तो प्रभु द्वारा उद्धार होता था, उसके मन में ईर्ष्या का अंकुर उत्पन्न हुआ, वह सोचने लगा- ‘यह भी कोई अजीब आदमी है, विधाता ने इसे इतना सौन्दर्य दिया है, चढ़ती जवानी है, किसी उच्च कुल का प्रतीत होता है, फिर भी ऐसी वैराग्य की बातें कर रहा हूँ। मालूम होता है इसे सत्यबाई और लक्ष्मीबाई के समान रूप-लावण्युक्त कोई ललना नहीं मिली है, यदि एक बार इसने ऐसी अनुपम सुन्दरी के दर्शन के किये होते तो वह संन्यास और वैराग्य सभी को भूल जाता।’ |