श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी106. दक्षिण के तीर्थों का भ्रमण
प्रभु ने उसे बड़े स्नेह से उठाकर छाती से लगाया और बड़े ही मीठे स्वर से कहने लगे, ‘विप्रवर! तुम धन्य हो, यथार्थ में गीता का असली अर्थ तो तुमने ही समझा है। भगवान शुद्ध अथवा अशुद्ध पाठ से प्रसन्न या असन्तुष्ट नहीं होते। वे तो भाव के भूखे हैं। भावग्राही भगवान से किसी के घटकी बात छिपी नहीं है। लाखों शुद्ध पाठ करो और भाव अशुद्ध हैं, तो उनका फल अशुद्ध ही होगा। यदि भाव शुद्ध हैं और अक्षर चाहे अशुद्ध भी उच्चारण हो जायँ तो उसका फल शुद्ध ही होगा। भावों को शुद्धि की ही अत्यन्त आवश्यकता है। भाव शुद्ध होने पर पाठ शुद्ध हो तब तो बहुत ही अच्छा है। सोने में सुगन्ध है और यदि पाठ शुद्ध न भी हो तो भी कोई हानि नहीं। जैसा कि कहा है- मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे। अर्थात ‘मुर्ख कहता है ‘विष्णाय नम’ और पण्डित कहता है ‘विष्णवे नम:’ भाव शुद्ध होने से इन दोनों का फल समान ही होगा। कारण कि भगवान जनार्दन भावग्राही हैं।’ महाप्रभु के मुख से इस बात को सुनकर उस ब्राह्मण को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने उसी समय प्रभु को आत्मसमर्पण कर दिया। जब तक प्रभु श्रीरंगक्षेत्र में रहे, तब तक वह महाप्रभु के साथ ही रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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