श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी95. आचार्य वासुदेव सार्वभौम
वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम् । शास्त्रों में बुद्धि दो प्रकार की बतायी गयी हैं। एक तो लौकिकी बुद्धि और दूसरी परमार्थ-सम्बन्धिनी बुद्धि। लौकिकी बुद्धि से परमार्थ के पथ में काम नहीं चलने का। चाहे आप कितने भी बड़े विद्वान क्यों न हों और आपको चाहे जितनी ऊँची-ऊँची बातें सूझती हों, पर उस इतनी ऊँची प्रखर बुद्धि का अन्तिम फल सांसारिक सुखों की प्राप्तिमात्र ही है। जब तक उस बुद्धि को आप परमार्थ की ओर नहीं झुकाते, तब तक आप में और लकड़ी बेचकर पेट भरने वाले जड पुरुष में कुछ भी अन्तर नहीं। वह दिनभर परिश्रम करके चार पैसे ही रोज पैदा करता है और उसी से जैसे-तैसे अपने परिवार का भरण-पोषण करता है और आप अपनी प्रखर प्रतिभा के प्रभाव से हजारों, लाखों रुपये रोज पैदा करते हैं। उनसे भी आपकी पूर्णरीत्या संतुष्टि नहीं होती और अधिकाधिक धन प्राप्त करने की इच्छा बनी ही रहती है। धन की प्राप्ति में दोनों ही उद्योग करते हैं और दोनों को जो भी प्राप्त होता है उसमें अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार दोनों ही असंतुष्ट बने रहते हैं। तब केवल शास्त्रों की बातें पढ़ाकर पैसा पैदा करने वाले पण्डित में और लकड़ी बेचकर जीवननिर्वाह करने वाले मूर्ख में अन्तर ही क्या रहा? तभी तो तुलसीदास जी ने कहा है- काम, क्रोध, मद, लोभ की, जबलग मन में खान। जिनका उल्लेख पहले हो चुका है, वे सर्वविद्याविशारद अपने समय के अद्वितीय नैयायिक पण्डितप्रवर आचार्य वासुदेव सार्वभौम प्रभु के दर्शनों के पूर्व उसी प्रकार के पोथी के पण्डित थे, उनकी बुद्धि जब तक परमार्थ-पथ मे विचरण करने वाली नहीं बनी थी, तब तक उनकी सम्पूर्ण शक्ति पुस्तक की विद्या की ही पर्यालोचना में नष्ट होती थी। आचार्य वासुदेव सार्वभौम का घर नवद्वीप के ‘विद्यानगर’ नामक स्थान में था। इनके पिता का नाम महेश्वर विशारद था। विशारद महाशय शास्त्रज्ञ और कर्मनिष्ठ ब्राह्मण था। महाप्रभु के मातामह श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती के साथ पढ़े थे। सार्वभौम दो भाई थे। इनके दूसरे भाई श्रीमधुसूदन वाचस्पति बहुत प्रसिद्ध विद्वान तथा नामी पण्डित थे। उनकी एक बहिन थी जिसका विवाह श्री गोपीनाथाचार्य के साथ हुआ था। सार्वभौम महाशय की बुद्धि बाल्यकाल से ही तीव्र थी। पाठशाला में ये जिस पाठ के एक बार सुन लेते फिर उसे दूसरी बार याद करने की इन्हें आवश्यकता नही होती थी। पढ़ने में प्रमाद करना तो ये जानते ही नहीं थे। किसी बात को भूलना तो इन्होंने सिखा ही नहीं था। एक बार इन्हें जो भी सूत्र या श्लोक कण्ठस्थ हो गया मानो वह लोहे की लकीर की भाँति स्थायी हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ खूब बोलना यहाँ तक कि बोलते-बोलते शब्दों की झड़ी लगा देना तथा भाँति-भाँति के व्याख्यान देने की कुशलता और उसी प्रकार विद्वानों की अनेक शास्त्रों की विद्वत्ता- ये सब संसारी भोग्य पदार्थों को ही देने वाली हैं, मुक्ति को नहीं। विवेकचूडामणि