श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी87. शचीमाता का संन्यासी पुत्र के प्रति मातृ-स्नेह
पुत्र ही माता की आत्मा है, पुत्र माता के शरीर का एक प्रधान भाग है। पुत्र की सन्तुष्टि में माता को सन्तोष होता है। पुत्र की प्रसन्नता से माता को प्रसन्नता होती और पुत्र की तृष्टि में माता स्वयं अपने तन-मन की तृष्टि का अनुभव करती है। माता की एक ही सबसे बड़ी साध होती है, वह अपने प्रिय पुत्र को अपने सामने खाते हुए देखना चाहती हैं। अपनी शक्ति के अनुसार जितने अच्छे-अच्छे पदार्थ वह अपने पुत्र को खिला सकती है, उतने पदार्थों को उसे खिलाकर वह इतनी प्रसन्न होती है, जितनी प्रसन्नता उसे स्वयं खाने से प्राप्त नहीं होती। पुत्र चाहे बूढा़ भी क्यों न हो जाय, उसके पाण्डित्य का, उसकी बुद्धि का, उसके ऐश्वर्य का चाहे सम्पूर्ण संसार ही लोहा क्यों न मान ले, किन्तु माता कि लिये वह पुत्र सदा छोटा बालक ही बना रहता है, वह आते ही उसके पेट को देखने लगती है कि कहीं भूखा तो नहीं है। जाते समय वह उससे वस्त्रों को ठीक तौर साँभालकर रखने का आदेश करती है। छोटी-छोटी बातों को वह इस तरह से बताती है, मानो उसे मार्ग के सम्बन्ध में कुछ बोध ही न हो। पुत्र के लिये जलपान का सामान बांधना वह नहीं भूलती। इसीलिये नीतिकारों ने कहा है- मात्रा समानं न शरीरपोषणम्। अर्थात माता के समान शरीर का पोषण करने वाला दूसरा व्यक्ति नहीं है। शचीमाता ने अपने निमाई को संन्यासी-वेष में देखा। यद्यपि अब प्रभु पहले की भाँति श्वेत वस्त्र धारण नहीं कर सकते थे। उनके सिर के सुन्दर बाल अब सुगन्धित तैलों से नहीं सींचे जाते थे, अब वे धातु के पात्रों में भोजन नहीं कर सकते थे, अब उनके लिये एकका ही अन्न खाते रहना निषेध है, तब भी इन बाहरी बातों से क्या होता है? माता के लिये तो उसका पुत्र वही पुराना निमाई ही है। सिर मुड़ाने और कपड़े रंग लेने से उसके निमाई में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। माता उसी तरह प्रभु के ऊपर प्यार करती। वह स्वयं अपने हाथों से प्रभु के भोजन के लिये भाँति-भाँति के व्यंजन बनाती। वह प्रभु के स्वभाव से पूर्णरीत्या परिचित थी। उसे इस बात का पता था कि निमाई किन-किन पदार्थों को खूब प्रेमपूर्वक खाता है, उन्हीं सब पदार्थों को माता खूब सावधानी के साथ बनाती और अपने हाथ से परोसकर प्रभु को खिलाती। प्रभु भी माता के सन्तोष के निमित्त सभी पदार्थों को खूब रुचिपूर्वक खाते और भोजन करते-करते पदार्थों की प्रशंसा भी करते जाते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे पुत्र! तेरा स्वभाव चन्दन से भी अधिक शीतल है, तेरे शास्त्रज्ञान की सम्पूर्ण पृथ्वी पर ख्याति हो रही है। इतना कोमल हृदय और ज्ञानी होने पर भी हाय! बेटा! तू अपनी वृद्धा माता आदि को परित्याग करके वन के लिये क्यों जा रहा है? सु. र. भां. 378/12