श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी74. नवानुराग और गोपी-भाव
क्वचिदुत्पुलकस्तूष्णीमास्ते संस्पर्शनिर्वृत:। महाप्रभु जब से गया से लौटकर आये थे, तभी से सदा प्रेम में छके-से, बाह्य-ज्ञानशून्य-से तथा बेसुध-से बने रहते थे! किंतु भक्तों के साथ संकीर्तन करने में उन्हें अत्यधिक आनन्द आता। कीर्तन में वे सब कुछ भूल जाते। जहाँ उनके कानों में संकीर्तन की सुमधुर ध्वनि सुनायी पड़ी कि उनका मन उन्मत्त होकर नृत्य करने लगता। संकीर्तन के वाद्यों को सुनते ही उनके रोम-रोम खिल जाते और वे भावावेश में आकर रात्रिभर अखण्ड नृत्य करते रहते। न शरीर की सुधि और न बाहरी जगत का बोध; बस, उनका शरीर यन्त्र की तरह घूमता रहता। इससे भक्तों के भी आनन्द का पारावार नहीं रहता। वे भी प्रभु के सुखकारी मधुर नृत्य के साथ नाचने लगते। इस प्रकार बारह-तेरह महीने तक प्रभु बराबर भक्तों को लेकर कथा-कीर्तन में कालयापन करते रहे। काजी के उद्धार के अनन्तर प्रभु की प्रकृति में एकदम परिवर्तन दिखायी देने लगा। अब उनका चित्त संकीर्तन में नहीं लगता था। भक्त ही मिलकर कीर्तन किया करते थे। प्रभु संकीर्तन में सम्मिलित भी नहीं होते थे। कभी-कभी वैसे ही संकीर्तन के बीच में चले आते और कभी-कभी भक्तों के आग्रह से कीर्तन करने भी लगते, किंतु अब उनका मन किसी दूसरी ही वस्तु के लिये तड़पता रहता था। उस तड़पन के सम्मुख उनका मन संकीर्तन के ताल-स्वर के सहित नृत्य करने के लिये साफ इनकार कर देता था। अब प्रभु पहले की तरह भक्तों के साथ घुल-घुलकर प्रेम की बातें नहीं किया करते। अब तो उनकी विचित्र दशा थी। कभी तो वे अपने-आप ही रुदन करने लगते और कभी स्वयं ही खिलखिलाकर हंस पड़ते। कभी रोते-रोते कहने लगते- हे नाथ हे रामनाथ व्रजनाथार्तिनाशन। ‘हे नाथ! हे रामनाथ! हे व्रजनाथ! हे गोविन्द! दु:खसागर में डूबे हुए इस व्रज का तुम्हीं उद्धार करो। हे दीनानाथ! हे दु:खितों के एकमात्र आश्रय! हमारी रक्षा करो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवत-अनुराग में विभोर हुए प्रह्लाद जी की अवस्था का वर्णन करते हैं- ‘वे कभी-कभी भगवत्-स्वरूप में तन्मय हो जाने के कारण उसी भाव में निमग्न-से हो जाते थे, उनका सम्पूर्ण शरीर रोमाचिंत हो उठता था। अचल प्रेम के कारण उत्पन्न हुए प्रेमाश्रुओं के कारण उनके नेत्र कुछ मुँद-से जाते थे, ऐसी अवस्था में वे किसी से भी कुछ न बोलकर एकान्त में चुपचाप बैठे रहते थे। बैठते हुए, खाते हुए, घूमते हुए, सोते हुए, जल पीते हुए, और संलाप तथा भाषण करते हुए, भोजन और आसनादि भोग्य पदार्थों के उपभोग के समय उन्हें अपने गुण-दोषों का भी ध्यान नहीं रहता था; क्योंकि गोविन्द ने उन्हें अपने में अत्यन्त ही लवलीन कर लिया था।’ श्रीमद्भा. 7/4/41/38
- ↑ श्रीमद्भा. 10/4/75