श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी70. भगवत्-भजन में बाधक भाव
महाप्रभु अपने सभी भक्तों को नामापराध से बचे रहने का सदा उपदेश करते रहते थे। वे भक्तों की सदा देख-रेख रखते। किसी भी भक्त को किसी की निंदा करते देखते, तभी उसे सचेत करके कहने लगते- ‘देखो, तुम भूल कर रहे हो। भगवद्भजन में दूसरों की निंदा करना तथा भक्तों के प्रति द्वेष के भाव रखना महान पाप है। जो अभक्त हैं, उनकी उपेक्षा करो, उनके संबंध में कुछ सोचो ही नहीं। उनसे अपना संबंध ही मत रखो और जो भगवद्भक्त हैं, उनकी चरण-रज को सदा अपने सिर का आभूषण समझो। उसे अपने शरीर का सुंदर सुगन्धित अंगराग समझकर सदा भक्तिपूर्वक शरीर में मला करो।’ इसीलिये प्रभु के भक्तों में आपस में बड़ा ही भारी स्नेह था। भक्त एक-दूसरे को देखते ही आपस में लिपट जाते। कोई किसी के पैरों को ही पकड़ लेता, कोई किसी की चरण-धूलि को ही अपने मस्तक पर मलने लगता और कोई भक्त को दूर से ही देखकर धूलि में लोटकर साष्टांग प्रणाम ही करने लगता। भक्तों की शिक्षा के निमित्त वे भगवन्नामापराध की बड़ी भारी भर्त्सना करते और जब तक जिसके समीप वह अपराध हुआ है, उसके समीप क्षमा न करा लेते तब तक उस अपराधी के अपराध को क्षमा हुआ ही नहीं समझते थे। गोपाल चापाल ने श्रीवास पण्डित का अपराध किया था, इसी कारण उसके सम्पूर्ण शरीर मे गलित कुष्ठ हो गया था, वह अपने दु:ख से दु:खी होकर प्रभु ने शरणापन्न हुआ और अपने अपराध को स्वीकार करते हुए उसने क्षमा-याचना के लिये प्रार्थना की। प्रभु ने स्पष्ट कह दिया- ‘इसकी एक ही ओषधि है, जिन श्रीवास पण्डित का तुमने अपराध किया है, उन्हीं के चरणोदक को पान करो तो तुम्हारा अपराध क्षमा हो सकता है। मुझमें वैष्णवापराधी को क्षमा करने की सामर्थ्य नहीं है।’ गोपाल चापाल ने ऐसा ही किया। श्रीवास के चरणोदक को निष्कपट भाव से प्रेमपूर्वक पीने ही से उसका कुष्ठ चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (१) सत्पुरुषों की निंदा, (2) भगवन्नामों में भेद-भाव, (3) गुरु का अपमान, (4) शास्त्र-निंदा, (5) भगवन्नाम मे अर्थवाद, (6) नाम का आश्रय ग्रहण करके पापकर्मों में प्रवृत्त होना, (7) धर्म, व्रत, जप आदि के साथ भगवन्नाम की तुलना करना, (8) जो भगवन्नाम को सुनना न चाहता हो उन्हें नाम का उपदेश करना, (9) नाम का माहात्म्य श्रवण करके नामों में प्रेम न होना, (10) अहंता-ममता तथा विषयभोगों में लगे रहना- ये दस नामापराध हैं।