श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी68. श्रीकृष्ण–लीलाभिनय
यदि एक शब्द में कोई हमसे भक्त की परिभाषा पूछे तो हम उसके सामने ‘लोकबाह्म’ इसी शब्द को उपस्थित कर देंगे। इस एक ही शब्द में भक्त-जीवन की, भक्तिमार्ग के पवित्र पथ के पथिक की पूरी परिभाषा परिलक्षित हो जाती है। भक्तों के सभी कार्य अनोखे ही होते हैं। उन्हें लोक की परवा नहीं। बालकों की भाँति वे सदा आनन्द में मस्त रहते हैं, उन्हें रोने में भी मजा आता है और हंसने में भी आनन्द आता है। वे अपने प्रियतम की स्मृति में सदा बेसुध-से बने रहते हैं। जिस समय उन्हें कोई उनके प्यारे प्रीतम की दो-चार उलटी-सीधी बातें सुना दे, अहा, तब तो उनको आनन्द का कहना ही क्या है? उस समय तो उनके अंग-प्रत्यंगों में सभी सात्त्विक भावों का उदय हो जाता है। यथार्थ स्थिति का पता तो उसी समय लगता है। आइये, प्रेमावतार श्रीचैतन्य के शरीर में सभी भक्तों के लक्षणों का दर्शन करें। एक दिन श्री वासपण्डित के घर में प्रभु ने भावावेश में आकर ‘वंशी-वंशी’ कहकर अपनी वही पुरानी बांस की बांसुरी मांगी। कुछ हंसते हुए श्रीवास पण्डित ने कहा- ‘यहाँ बांसुरी कहा? आपकी बांसुरी तो गोपिकाएँ हर ले गयी।’ बस, इतना सुनना था कि प्रभु प्रेम में विह्वल हो गये, उनके सम्पूर्ण अंगों में सात्त्विक भावों का उद्दीपन होने लगा। वे गद्गदकण्ठ से बार-बार श्रीवास पण्डित कहते- ‘हाँ, सुनाओ। कुछ सुनाओ। वंशी की लीला सुनाते क्यों नही? उस बेचारी पोले बांस की बांसुरी ने उन गोपिकाओं का क्या बिगाड़ा था, जिससे वे उसे हर ले गयीं। पण्डित! तुम मुझे उस कथा-प्रसंग को सुनाओं।’ प्रभु को इस प्रकार आग्रह करते देखकर श्रीवास कहने लगे- ‘आश्विन का महीना था, शरद-ॠतु थी। भगवान निशानाथ अपनी सम्पूर्ण कलाओं से उदित होकर आकाशमण्डल को आलोकमय बना रहे थे। प्रकृति शांत थी, विहंगवृंद अपने-अपने घोंसलों में पड़े शयन कर रहे थे। वृंदावन की निकुंजों में स्तब्धता छायी हुई थी। रजनी की नीरवता की नाश करती हुई यमुना अपने नीले रंग के जल के साथ हुंकार करती हुई धीरे-धीरे बह रही थी। उसी समय मोहन की मनोहर मुरली की सुरीली तान गोपिकाओं के कानों में पड़ी।’ बस, इतना सुनना था कि प्रभु पछाड़ खाकर भूमि पर गिर पड़े और आँखों से अविरल अश्रु बहाते हुए श्रीवास पण्डित से कहने लगे- ‘हाँ, फिर क्या हुआ? आगे कहो। कहते क्यों नहीं? मेरे तो प्राण उस मुरली की सुरीली तान को सुनने के लिये लालायित हो रहे हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवत-प्रेम में पागल हुए भक्त की दशा का वर्णन करते हैं- कभी तो भगवत-चितंन से उसका हृदय क्षुब्ध-सा हो उठता है और भगवान वियोगजन्य दु:ख के स्मरण से वह रोने लगता है। कभी भगवत-चिंतन से प्रसन्न होकर उनके रूप-सुधाका पान करते-करते हंसने लगता है, कभी जोरों से भगवन्नामों का और गुणों का गान करने लगता है। कभी उत्कण्ठा के सहित हुंकार मारने लगता है, कभी निर्लज्ज होकर नृत्य करने लगता है और कभी-कभी वह ईश्वर-चिंतन में अत्यंत ही लवलीन होने पर तन्मय होकर अपने-आप ही भगवान की लीलाओं का अनुकरण करने लगता है। श्रीमद्भा. 7/4/39-40