श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी66. जगाई-मधाई का पश्चात्ताप
जो हृदय पाप करते-करते मलिन हो जाता है, उसमें पश्चात्ताप की लपट कुछ असर नहीं करती। जिस प्रकार अत्यन्त कालें वस्त्र में स्याही का दाग प्रतीत नहीं होता, जो वस्त्र जितना ही स्वच्छ होगा, उसमें मैल का दाग भी उतना ही अधिक प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होगा। इसी प्रकार पश्चात्ताप की ज्वाला स्वच्छ और सरल हृदयों में ही अधिक उठा करती है। जो जितना ही अधिक निष्पाप होगा, जिसने अपने पापों को समझकर उनसे सदा के लिये मुंह मोड़ लिया होगा, उसे अपने पूर्वकृत कुकर्मों पर उतना ही अधिक पश्चात्ताप होगा और वह पश्चात्ताप ही उसे प्रभु के पादपद्मों तक पहुँचाने में सहायक बन सकेगा। पाप करने के पश्चात जो उसके स्मरण से हृदय में एक प्रकार का ताप या दु:ख होता है, उसे ही पश्चात्ताप कहते हैं। जिसे अपने कुकृत्यों पर दु:ख नहीं, जिसे अपने झूठ और अनर्थ वचनों का पश्चात्ताप नहीं, वह सदा इन्द्रियलोलुप संसारी योनियों में घूमने वाला नारकीय जीव ही बना रहेगा। उसकी निष्कृति का उपाय प्रभु कृपा करें तब भले ही हो सकता है। पश्चात्ताप हृदय के मल को धोकर उसे स्वच्छ बना देता है। पश्चात्ताप दुष्कर्मों की सर्वोत्तम ओषधि है, पश्चात्ताप प्राणियों को परम पावन बनाने के लिये रसायन है। पश्चात्ताप संसार-सागर में डूबते हुए पुरुष का एकमात्र सहारा है। वे पुरुष धन्य हैं, जिन्हें अपने पापों और दुष्कर्मों के लिये पश्चात्ताप हुआ करता है। जगाई-मधाई दोनों भाइयों की निताई और निमाई इन दोनों भाइयों की अहैतु की कृपा से ऐसी कायापलट हुई कि इन्हें घरबार, कुटुम्ब-परिवार कुछ भी अच्छा नहीं लगता। ये सब कुछ छोड़कर सदा श्रीवास पण्ड़ित के ही घर में रहकर श्रीकृष्ण-कीर्तन और भगवन्नाम का जप करने लगे। ये नित्यप्रति चार बजे उषाकाल में उठकर गंगा स्नान करने जाते और नियम से रोज दो लाख हरिनाम का जप करते। इनकी आँखे सदा अश्रुओं से भीगी ही रहतीं। पुरानी बातों को याद कर-करके ये दोनों भाई सदा अधीर-से ही बने रहते। इन्हें खाना-पीना या किसी से बातें करना विष का समान जान पड़ता। ये न तो किसी से बोलते और न कुछ खाते ही थे, दिन-रात आँखों से आंसू ही बहाते रहते। श्रीवास इनसे खाने के लिये बहुत अधिक आग्रह करते, किंतु इनके गले के नीचे ग्रास उतरता ही नहीं। नित्यानन्द जी समझा-समझाकर हार गये, किंतु इन्होंने कुछ खाना स्वीकार ही नहीं किया। तब नित्यानन्दजी प्रभु को बुला लाये। प्रभु ने अपना कोमल कर इन दोनों की पीठपर फेरते हुए कहा- ‘भाइयों! तुम्हारें सब पाप तो मैंने ले लिये। अब तुम निष्पाप होकर भी भोजन क्यों नहीं करते? क्या तुमने मुझे सचमुच में अपने पाप नहीं दिये या मेरे ही ऊपर तुम्हारा विश्वास नहीं है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हाँ! मैंने न तो अपने जीवन में श्रीराधारमण के चरणों की शरण ली और न भगवान पार्वतीपति के पादपद्मों की प्रेम के साथ पुष्पादि से पूजा ही की। बस, दूसरों की विषयसामग्रियों के अपहरण में ही काल-यापन किया। हे दयालो, प्रभो! जब मेरा परलोक में यमराज से साक्षात्कार होगा, तब मैं क्या कह सकूँगा? वहाँ मेरी गुजर कैसे होगी? हा! मैंने अब तक का समय व्यर्थ ही बरबाद कर दिया। सु. र. भां. 399/211