श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी7. चैतन्य-कालीन बंगाल
यत्र यत्र च मद्भक्ताः प्रशान्ताः समदर्शिनः। श्रीमद्भागवत में कीकट देश की परिभाषा की है कि जहाँ काला हिरन स्वेच्छा से विहार न करता हो, जहाँ ब्राह्मणों की भक्ति न होती हो और जहाँ शुचि, पवित्र सज्जन और विद्वान पुरुष निवास न करते हों, वे ही देश अपवित्र हैं। एक स्थान पर कीकट देशों के नाम भी गिनाये हैं। यथा- अंगबंगकलिंगेषु सौराष्ट्रमगधेषु च। अर्थात ‘अंगदेश, बंगदेश, कलिंगदेश, सौराष्ट्र ओर मगधदेश यदि इनमें तीर्थयात्रा बिना चला भी जाय तो उसे फिर से संस्कार करना चाहिये। ‘पूर्वकाल में ऐसी मान्यता थी कि बंगदेश में प्रवेश करते ही ब्राह्मण अपवित्र हो जाता है। महाभारत में स्थान-स्थान पर इसका उल्लेख आया है। यहाँ तक कि तीर्थयात्रा के समय पाण्डव के साथ जो ब्राह्मण थे, वे बंगदेश की सरहद आते ही उने साथ से लौट गये। तीर्थयात्रा के निमित्त भी उन्होंने बंगदेश में जाना उचित नहीं समझा। इसमें असली रहस्य क्या है, इसे तो सर्वज्ञ ऋषि ही समझ सकते हैं, किन्तु आजकल तो कोई इस प्रकार का आग्रह करने लगे तो उसे पागलखाने में भेजने के लिये सभी लोग सहमत हो जायँगे। जहाँ पर ऐसे देशों में न जाने के सम्बन्ध में वाक्य मिलते हैं, वहाँ ऐसे भी अनेकों प्रमाण भरे पड़े हैं कि भगवत-भक्त की लीलास्थली कोटि तीर्थों से भी बढ़कर पावन बन जाती है। जिस भूमि को महाप्रभु गौरांगदेव, परमहंस रामकृष्णदेव, विजयकृष्ण गोस्वामी तथा जगद्बन्धु ऐसे भगवत-भक्तों ने अपनी पदधूलि से पावन बनाया हो, जिसमें राजा राममोहन राय, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर तथा ब्रह्मानन्द, केशवचन्द्र- जैसे भगवत-भक्त, समाज-सुधारक उत्पन्न हुए हों, जिस भूमि ने देशबन्धु चित्तरंजन दास- जैसे देशभक्त को जन्म दिया हो, आज भी जिसमें अरविन्द-जैसे योगी, रविन्द्र-जैसे विश्व-कवि, जगदीशचन्द्र वसु- जैसे जगत-विख्यात विज्ञान-वेत्ता और सुभाषचन्द्र- जैसे अनन्य देशभक्त सम्पूर्ण भारत का मुख उज्ज्वल कर रहे हों, उस देश को हम अब कीकट-देश कैसे कह सकते हैं? जब होगा, तब रहा हो, आज तो वही देश परम पावन बना हुआ है, चैतन्यदेव की लीला-भूमि के लिये भावुक भक्तों के हृदय में व्रजभूमि से कम आदर नहीं है। नवद्वीप तो भक्तों के लिये पूर्व वृन्दावन ही बना हुआ है। जहाँ श्रीकृष्ण चैतन्य-जैसे परम भावुक और साक्षात प्रेम की सजीव मूर्ति प्रेमावतार महापुरुष का प्राकट्य हुआ हो, उसका महत्त्व वृन्दावन के सदृश होना ही चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान कहते हैं, जिन स्थानों में प्रशान्त और समदर्शी मेरे भक्त निवास करते हैं वे देश चाहे अपवित्र ही क्यों न हों, उनकी चाहे कीकट संज्ञा ही क्येां न हो, किन्तु उनके वहाँ उत्पन्न होने और निवास करने से वे देश परम पवित्र बन जाते हैं।