श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी58. सप्तप्रहरिया भाव
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता। महाभारत के युद्धक्षेत्र में अर्जुन के प्रार्थना करने पर भगवान ने उसे अपना विराटरूप दिखाया था। भगवान का वह विराटरूप अर्जुन को ही दृष्टिगोचर हुआ था। दोनों सेनाओं के लाखों मनुष्य वहाँ उपस्थित थे, किंतु उनमें से किसी को भी भगवान के उस रूप के दर्शन नहीं हुए थे। अर्जुन भी इन चर्म-चक्षुओं से भगवान के दर्शन नहीं कर सकते थे, इसलिये कृपा करके भगवान ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान कर दी थी। इसीलिये दिव्य दृष्टि के सहारे उस अलौकिक रूप को देखने में समर्थ हो सके। इधर भगवान वेदव्यास जी ने संजय को दिव्य दृष्टि दे रखी थी, इस कारण उन्हें भी हस्तिनापुर में बैठे-ही-बैठे उस रूप के दर्शन हो सके। असल में दिव्य दृष्टि के बिना दिव्य रूप के दर्शन हो ही नहीं सकते। बाहरी लौकिक दृष्टि से तो बाहर के भौतिक पदार्थ ही देखे जा सकते हैं। जब तक भीतरी नेत्र न खुलें, जब तक कृपा करके श्रीकृष्ण दिव्य दृष्टि प्रदान न करें तब तक अलौकिक और परम प्रकाशमय स्वरूप दीख ही नहीं सकता। भक्तों का लोक ही अलग होता है, उसकी भाषा अलग होती है और उसका व्यवहार भी भिन्न ही प्रकार का होता है। जिसे भगवान कृपा करके अपना लेते हैं, अपना कहकर जिसे वरण कर लेते हैं और जिसकी रतिरूपी अन्तर्दृष्टि को खोल देते हैं, उसे ही अपने ध्येय पदार्थ में इष्टदेव के दर्शन होते हैं। उसके सामने ही उसके भाव ज्यों-के-त्यों प्रकट होते हैं। दृढ़ विश्वास के बिना कहीं भी अपने इष्टदेव के दर्शन नहीं हो सकते। हम पहले ही बता चुके हैं कि गौरांग के जीवन में द्विविध भाव दृष्टिगोचर होते थे। वैसे तो वे सदा एक अमानी भवत-भक्त के भाव में रहते थे, किंतु कभी-कभी उनके शरीर में भगवत-भाव भी प्रकट होता था, उस समय उनकी सभी चेष्टाएँ तथा व्यवहार ऐश्वर्यमय होते थे। ऐसा भाव बहुत देर तक नहीं रहता था, कुछ काल के ही अनन्तर उस भाव का शमन हो जाता और फिर ये ज्यों-के-त्येां ही साधारण भगवत-भक्त के भाव में आ जाते। अब तक ऐसे भाव थोड़ी ही देर को हुए थे, किंतु एक बार ये पूरे सात प्रहर भगवत-भाव में बने रहे। इस भाव को ‘सप्तप्रहरिया भाव’ या ‘महाप्रकाश’ कहकर वैष्णव भक्तों ने इसका विशदरूप से वर्णन किया है। नवद्वीप में प्रभु के शरीर में यही सबसे बड़ा भाव हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हजारों सूर्य और चन्द्रमाओं का जैसे एक साथ ही प्रकाश होता है, उसी प्रकार की उन माहात्मा की कान्ति हो गयी। गीता 11/12