श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी57. हरिदासजी द्वारा नाम-माहात्म्य
हरिकीर्तनशीलो वा तद्भक्तानां प्रियोऽपि वा। शोक और मोह का कारण है प्राणियों में विभिन्न भावों का अध्यारोप। जब मनुष्य एक को तो अपना सुख देने वाला प्यारा सुहृद् समझता है ओर दूसरे को दुःख देने वाला शत्रु समझकर उससे द्वेष करने लगता है, तब उसके हृदय में शोक और मोह का उदय होना अवश्यम्भावी है, जिस समय सभी प्राणियों में वह उसी एक अखण्ड सत्ता का अनुभव करने लगेगा, जब प्राणिमात्र को प्रभु का पुत्र समझकर सबको महान भाव से प्यार करने लगेगा, तब उस साधक के हृदय में मोह और शोक का नाम भी न रहेगा। वह सदा प्रसन्न होकर भगवन्नामों का ही स्मरण-चिन्तन करता रहेगा। उसके लिये न तो कोई संसार में शत्रु होगा न मित्र, वह सभी को अपने प्रियतम की प्यारी संतान समझकर भाई के नाते से जीवमात्र की वन्दना करेगा और उसे भी कोई क्लेश न पहुँचा सकेगा। उसके सामने आने पर विषधर सर्प भी अपना स्वभाव छोड़ देगा। भगवन्नाम का माहात्म्य ही ऐसा है। महात्मा हरिदास जी फुलिया के पास ही पुण्यसलिला माँ जाह्नवी के किनारे पर एक गुफा बनाकर उसमें रहते थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी थी। नित्यप्रति वहाँ सैकड़ों आदमी इनके दर्शन के लिये तथा गंगास्नान के निमित्त इनके आश्रम के निकट आया करते थे। जो भी मनुष्य इनकी गुफा के समीप जाता, उसके शरीर में एक प्रकार की खुजली-सी होने लगती। लोगों को इसका कुछ भी कारण मालूम न हो सका। उस स्थान में पहुँचने पर चित्त में शान्ति तो सभी के होती, किंतु वे खुजली से घबड़ा जाते। लोग इस विषय में भाँति-भाँति के अनुमान लगाने लगे। होते-होते बात सर्वत्र फैल गयी। बहुत-से चिकित्सकों ने वहाँ की जलवायु का निदान किया, अन्त में सभी ने कहा- ‘यहाँ जरूर कोई महाविषधर सर्प रहता है। न जाने हरिदास जी कैसे अभी तक बचे हुए हैं, उसके श्वास से ही मनुष्य की मृत्यु हो सकती है। वह कहीं बहुत भीतर रहकर श्वास लेता है, उसी का इतना असर है कि लोगों के शरीर में जलन होने लगती है, यदि वह बाहर निकलकर जोरों से फुंकार करे, तो इसकी फुंकार से मनुष्य बच नहीं सकता। हरिदास जी इस स्थान को शीघ्र ही छोड़कर कहीं अन्यत्र रहने लगें, नहीं तो प्राणों का भय है।’ चिकित्सकों की सम्मति सुनकर सभी ने हरिदास जी से आग्रहपूर्वक प्रार्थना की कि आप इस स्थान को अवश्य ही छोड़ दें। आप तो महात्मा हैं, आपको चाहे कष्ट न भी हो, किंतु और लोगों को आपके यहाँ रहने से बड़ा भारी कष्ट होगा। दर्शनार्थी बिना आये रहेंगे नहीं और यहाँ आने पर सभी को शारीरिक कष्ट होता है। इसलिये आप हम लोगों का ही खयाल करके इस स्थान को त्याग दीजिये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देवता कहते हैं- जो भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करता है अथवा जो हरिभक्तों का प्रिय ही है और जो देवता, ब्राह्मण, गुरु और श्रेष्ठ विद्वानों की सदा सेवा-शुश्रूषा करता है, ऐसा श्रेष्ठ भक्त हम लोगों का भी वन्दनीय है। अर्थात हम देवता त्रिलोकी के वन्द्य हैं, किंतु ऐसा भक्त हमारा भी श्रद्धेय है।