श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी54. द्विविध-भाव
भगवद्भावेन यः शश्वद्भक्तभावेन चैव तत्। प्रत्येक प्राणी की भावना विभिन्न प्रकार की होती है। अरण्य में खिले हुए जिस मालती के पुष्प को देखकर सहृदय कवि आनन्द में विभोर होकर उछलने और नृत्य करने लगता है, जिस पुष्प में वह विश्व के सम्पूर्ण सौन्दर्य का अनुभव करने लगता है, उसको ग्राम के चरवाहे रोज देखते हैं, उस ओर उनकी दृष्टि तक नहीं जाती। उनके लिये उस पुष्प का अस्तित्व उतना ही है, जितना कि रास्ते में पड़ी हुई काठ, पत्थर तथा अन्य सामान्य वस्तुओं का। वे उस पुष्प में किसी भी प्रकार की विशेष भावना का आरोप नहीं करते। असल में यह प्राणी भावमय है। जिसमें जैसे भाव होंगे उसे उस वस्तु में वे ही भाव दृष्टिगोचर होंगे। इसी भाव को लेकर तो गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।। महाप्रभु के शरीर में भी भक्त अपनी-अपनी भावना के अनुसार नाना रूपों के दर्शन करने लगे। कोई तो प्रभु को वराह के रूप में देखता, कोई उनके शरीर में नृसिंहरूप के दर्शन करता, कोई वामनभाव का अध्यारोप करता। किसी को प्रभु की मूर्ति श्यामसुन्दर रूप में दिखायी देती, किसी को षड्भुजी मूर्ति के दर्शन होते। कोई प्रभु के इस शरीर को न देखकर उन्हें चतुर्भुजरूप से देखता और उनके चारों हस्तों में उसे प्रत्यक्ष शंख, चक्र, गदा और पद्म दिखायी देते। इस प्रकार एक ही प्रभु के श्रीविग्रह को भक्त भिन्न-भिन्न प्रकार से देखने लगे। जिसे प्रभु के चतुर्भुजरूप के दर्शन होते, उसे ही प्रभु की चारों भुजाएँ दीखतीं, अन्य लोगों को वही उनका सामान्य रूप दिखायी देता। जिसे प्रभु का शरीर ज्योतिर्मय दिखायी देता और प्रकाश के अतिरिक्त उसे प्रभु की और मूर्ति दिखायी ही नहीं देती, उसी की आँखों में वह प्रकाश छा जाता, साधारणतः सामान्य लोगों को वह प्रकाश नहीं दीखता, उन लोगों को प्रभु के उसी गौररूप के दर्शन होते रहते। सामान्यतया प्रभु के शरीर में भगवत-भाव और भक्त-भाव ये दो ही भाव भक्तों को दृष्टिगोचर होते। जब इन्हें भगवत-भाव होता, तब ये अपने-आपको बिलकुल भूल जाते, निःसंकोच-भाव से देवमूर्तियों को हटकर स्वयं भगवान के सिंहासन पर विराजमान हो जाते और अपने को भगवान कहने लगते। उस अवस्था में भक्तवृन्द उनकी भगवान की तरह विधिवत पूजा करते, इनके चरणों को गंगा-जल से धोते, पैरों पर पुष्प-चन्दन तथा तुलसीपत्र चढ़ाते। भाँति-भाँति के उपहार इनके सामने रखते। उस समय ये इन कामों में कुछ भी आपत्ति नहीं करते, यही नहीं, किंतु बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक भक्तों की की हुई पूजा को ग्रहण करते और उनसे आशीर्वाद माँगने का भी आग्रह करते और उन्हें इच्छानुसार वरदान भी देते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो निरन्तर भक्त-भाव और भगवद्भाव इन दोनों भावों से भक्तों को आनन्दित बनाते रहते हैं, उन श्रीचैतन्य महाप्रभु के लिये हम नमस्कार करते हैं। प्र. द. ब्र.