श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी50. अद्वैताचार्य के ऊपर कृपा
यदि प्रेम सचमुच में स्वाभाविक है, यदि वास्तव में उसमें किसी भी प्रकार का संसारी स्वार्थ नहीं है, तो दोनों ही ओर से हृदय में एक प्रकार की हिलोरें-सी उठा करती हैं। उर्दू के किसी कवि ने प्रेम की डरते-डरते और संशय के साथ बड़ी ही सुन्दर परिभाषा की है। वे कहतें- सीने में दिल को खिंचता हुआ-सा देखकर ही वे अनुमान करते हैं कि हो न हो, यह प्रेम की ही बला है। तो भी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते। निश्चयात्मक क्रिया देने में डरते हैं। धन्य हैं! यथार्थ में इससे बढि़या प्रेम की परिभाषा हो ही नहीं सकती। शान्तिपुर में बैठे हुए अद्वैताचार्य गौरांग की सभी लीलाओं की खबर सुनते और मन-ही-मन प्रसन्न होते। अपने प्यारे की प्रशंसा सुनकर हृदय में स्वाभाविक ही एक प्रकार की गुदगुदी-सी होने लगती है। महाप्रभु का यशःसौरभ अब धीरे-धीरे सम्पूर्ण गौड़देश में व्याप्त हो चुका था। आचार्य प्रभु के भक्तिभाव की बातें सुनकर आनन्द में विभोर होकर नृत्य करने लगते और अपने-आप ही कभी-कभी कह उठते- ‘गंगाजल और तुलसीदलों से जो मैंने चिरकाल तक भक्त भयभंजन भगवान का अर्चन-पूजन किया था, ऐसा प्रतीत होता है, मेरा वह पूजन अब सफल हो गया। गौरहरि भगवान विश्वम्भर के रूप में प्रकट होकर भक्तों के दुःखों को दूर करेंगे।’ उनका हृदय बार-बार कहता- ‘प्रभु की छत्रछाया में रहकर अनेकों भक्त पावन बन रहे हैं, वे अपने को गौरहरि के संसर्ग और संपर्क से कृतकृत्य बना रहे हैं, तू भी चलकर अपने इस नीरस जीवन को सार्थक क्यों नहीं बना लेता?’ किंतु प्रेम में भी एक प्रकार का मीठा-मीठा मान होता है। अपने प्रिय की कृपा की प्रतीक्षा में भी एक प्रकार का अनिर्वचनीय सुख मिलता है। इसलिये थोड़ी ही देर बाद वे फिर सोचते- ‘मैं स्वयं क्यों चलूँ, जब ये ही मेरे इष्टदेव होंगे, तो मुझे स्वयं ही बुलावेंगे, बिना बुलाये मैं क्यों जाऊँ?’ इन्हीं सब कारणों से इच्छा होने पर भी अद्वैताचार्य नवद्वीप नहीं आते थे। इधर महाप्रभु को जब भावावेश होता तभी जोरों से चिल्ला उठते- ‘‘नाड़ा’’ कहाँ है! हमें बुलाकर ‘नाड़ा’ स्वयं शान्तिपुर में जा छिपा। उसी की हुंकार से तो हम आये हैं।’’ पहले-पहल तो भक्तगण समझ ही न सके कि ‘नाड़ा’ कहने से प्रभु का अभिप्राय किससे है? जब श्रीवास पण्डित ने दीनता के साथ जानना चाहा कि ‘नाड़ा’ कौन है, तब प्रभु ने स्वयं ही बताया कि ‘अद्वैताचार्य की प्रार्थना पर ही हम जगदुद्धार के निमित्त अवनितल पर अवतीर्ण हुए हैं। ‘नाड़ा’ कहने से हमारा अभिप्राय उन्हीं से है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ किसी प्रेम में अधीर हुई नायिका से सखी कह रही है-‘हे सखि! जो स्वाभाविक सहज स्नेह होता है, वह कभी कम नहीं होने का, फिर चाहे प्रेम पात्र कितनी भी दूरी पर क्यों न रहता हो। आकाश में विराजमान होते हुए भी चन्द्रदेव चकोरी के दोनों नेत्रों को आनन्द प्रदान करते ही रहते हैं।’ सु. र. भा. 922