श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी49. व्यासपूजा
प्रेम का पथ कितना व्यापक है, उसमें संदेह, छल, वंचना, बनावट के लिये तो स्थान ही नहीं। प्रेम में पात्रापात्र का भेदभाव नहीं। उसमें जाति, वर्ण, कुल, गोत्र तथा सजीव-निर्जीव का विचार नहीं किया जाता, इसीलिये प्रायः लोगों के मुखों से सुना जाता है कि ‘प्रेम अन्धा होता है।’ ऐसा कहने वाले स्वयं भ्रम में हैं। प्रेम अन्धा नहीं है, असल में प्रेम के अतिरिक्त अन्य सभी अन्धे हैं। प्रेम ही एक ऐसा अमोघ बाण है कि जिसका लक्ष्य कभी व्यर्थ नहीं होता, उसका निशान सदा ही ठीक ही लक्ष्य पर बैठता है। ‘अपना’ कहीं भी छिपा हो, प्रेम उसे वहीं से खोज निकालेगा। इसीलिये तो कहा है- ‘तिनका तिनके से मिला, तिनका तिनके पास।’ विशाल हिंदू-धर्म ने प्रेम की सर्वव्यापकता को ही लक्ष्य करके तो उपासना की कोई एक ही पद्धति निश्चय नहीं की है। तुम्हें जिससे प्रेम हो, तुम्हारा अन्तःकरण जिसे स्वीकार करता हो, उसी की भक्तिभाव से पूजा-अर्चा करो और उसी का निरन्तर ध्यान करते रहो, तुम अन्त में प्रेम तक पहुँच जाओगे। अपना उपास्य कोई एक निश्चय कर लो। अपने हृदय में किसी भी एक प्रिय को बैठा लो। बस, तुम्हारा बेड़ा पार है। पत्नी पति में ही भगवत-भावना करके उसका ध्यान करे, शिष्य गुरु को ही साक्षात परब्रह्म का साकार स्वरूप मानकर उसकी वन्दना करे, इन सभी का फल अन्त में एक ही होगा, सभी अपने अन्तिम अभीष्ट तक पहुँच सकेंगे। सभी को अपनी-अपनी भावना के अनुसार प्रभु-पद-प्राप्ति अथवा मुक्ति मिलेगी। सभी के दुःखों का अत्यन्ताभाव हो जायगा। यह तो सचेतन साकार वस्तु के प्रति प्रेम करने की पद्धति है, हिंदू-धर्म में तो यहाँ तक माना गया है कि पत्थर, मिट्टी, धातु अथवा किसी भी प्रकार की मूर्ति बनाकर उसी में ईश्वर-बुद्धि से पूजन करोगे तो तुम्हें शुद्ध-विशुद्ध प्रेम की ही प्राप्ति होगी। किंतु इसमें दम्भ या बनावट न होनी चाहिये। अपने हृदय को टटोल लो कि इसके प्रति हमारा पूर्ण अनुराग है या नहीं, यदि किसी के भी प्रति तुम्हारा पूर्ण प्रेम हो चुका तो बस, तुम्हारा कल्याण ही है, तुम्हारा सर्वस्व तो वही है। नित्यानन्द प्रभु बारह-तेरह वर्ष की अल्पवयस में ही घर छोड़कर चले आये थे। लगभग बीस वर्षों तक ये तीर्थों में भ्रमण करते रहे, इनके साथी संन्यासीजी इन्हें छोड़कर कहाँ चले गये, इसका कुछ भी पता नहीं चलता, किंतु इतना अनुमान अवश्य लगाया जा सकता है कि उन महात्मा के लिये इनके हृदय में कोई विशेष स्थान न बन सका। उनमें इनका गुरुभाव नहीं हुआ। बीस वर्षों तक इधर-उधर घूमते रहे, किंतु जिस प्रेमी के लिये इनका हृदय छटपटा रहा था, वह प्रेमी इन्हें कहीं नहीं मिला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीभगवान अर्जुन के प्रति उपदेश करते हुए कहते हैं- ‘अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस भाव से भजता है, मैं भी उसका उसी भाव से भजन करता हूँ, किसी भी रास्ते क्यों न आओ, अन्त में सब घूम-फिरकर मेरे ही पास आ जाते हैं (क्योंकि सभी प्राणियों का एकमात्र प्राप्ति स्थान मैं ही हूँ) गीता 4/11