श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी48. स्नेहाकर्षण
सचमुच प्रेम में कितना भारी आकर्षण है। आकाश में चन्द्र भगवान का इन्दु-मण्डल है और पृथ्वी पर सरित्पति सागर विराजमान है। जिस दिन शर्वरीनाथ अपनी सम्पूर्ण कलाओं से आकाशमण्डल में उदित होते हैं, उसी दिन अवनि पर मारे प्रेम के पयोनिधि उमड़ने लगता है। पद्माकर भगवान भुवन-भास्कर से कितनी दूर पर रहते हैं, किंतु उनके आकाश में उदय होते ही वे खिल उठते हैं, उनका मुकुर-मन जो अब तक सूर्यदेव के शोक में संकुचित बना बैठा था, वह उनकी किरणों का स्पर्श पाते ही आनन्द से विकसित होकर लहराने लगता है। बादल न जाने कहाँ गरजते हैं, किंतु पृथ्वी पर भ्रमण करने वाले मयूर यहीं से उनकी सुमधुर ध्वनि सुनकर आनन्द में उन्मत्त होकर चिल्लाने और नाचने लगते हैं, यदि प्रेम में इतना अधिक आकर्षण न होता तो सचमुच इस संसार का अस्तित्व ही असम्भव हो जाता। संसार की स्थिति ही एकमात्र प्रेम के ही ऊपर निर्भर है। प्रेम ही ईश्वर है और ईश्वर ही प्रेम है। प्रेम ही प्राणियों को भाँति-भाँति के नाच नचा रहा है। हृदय का विश्राम- स्थान प्रेम ही है। स्वच्छ हृदय में जब प्रेम का सच्चा स्वरूप प्रकट होता है, तभी हृदय में शान्ति होती है। हृदय में प्रेम का प्राकट्य हो जाने पर कोई विषय अज्ञेय नहीं रह जाता, आगे-पीछे की सभी बातें प्रत्यक्ष दीखने लगती हैं। फिर चर-अचर में जहाँ भी प्रेम दृष्टिगोचर होता है वहीं हृदय आप-से-आप दौड़कर चला जाता है। अहा, जिन्होंने प्रेम-पीयूष का पान कर लिया है, जो प्रेमासव का पान करके पागल बन गये हैं, उन प्रेमियों के पाद-पद्मों में पहुँचने पर हृदय में कितनी अधिक शान्ति उत्पन्न होती है, उसे तो वे ही प्रेमी भक्त अनुभव कर सकते हैं, जिन्हें प्रभु के प्रेम-प्रसाद की पूर्णरीत्या प्राप्ति हो चुकी है। नित्यानन्द प्रभु प्रेम के ही आकर्षण से आकर्षित होकर नवद्वीप आये थे, इधर इस बात का पता प्रभु के हृदय को बेतार के तार द्वारा पहले ही लग चुका था। उन्होंने उसी दिन भक्तों को नवद्वीप में अवधूत नित्यानन्द को खोजने के लिये भेजा। नवद्वीप कोई छोटा-मोटा गाँव तो था ही नहीं जिसमें से वे झट नित्यानन्दजी को खोज लाते, फिर नित्यानन्दजी से कोई परिचित भी नहीं था, जो उन्हें देखते ही पहचान लेता। श्रीवास पण्डित तथा हरिदास दिनभर उन नवीन आये हुए महापुरुष की खोज करते रहे, किंतु उन्हें इनका कुछ भी पता नहीं चला। अन्त में निराश होकर वे प्रभु के पास लौट आये और आकर कहने लगे- ‘प्रभो! हमने आपके आज्ञानुसार नवद्वीप के मुहल्ले-मुहल्ले में जाकर उन महापुरुष की खोज की, सब प्रकार के मनुष्यों के घरों में जाकर देखा, किंतु हमें उनका कुछ भी पता नहीं चला। अब जैसी आज्ञा हो, वैसा ही करें, जहाँ बतावें वहीं जायँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसके देखने से, जिसके शरीर-स्पर्श से, जिसके गुणों के श्रवण से, जिसके किसी प्रकार के भी भाषण से मन में एक प्रकार की गुदगुदी-सी होने लगे, हृदय आप-से-आप ही पिघलने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वहाँ स्नेह का आविर्भाव हो चुका है। मनीषियों ने इस हृदय के पिघलने की प्रक्रिया को ही प्रेम बताया है। सु. र. भां. 92/11