श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी43. श्रीवास के घर संकीर्तनारम्भ
सम्पूर्ण संसार एक अज्ञात आकर्षण के अधीन होकर ही सब व्यवहार कर रहा है। अग्नि सभी को गरम प्रतीत होती है। जल सभी को शीतल ही जान पड़ता है। सर्दी-गरमी पड़ने पर उसके सुख-दुःख का अनुभव जीवमात्र को होता है। यह बात अवश्य है कि स्थिति-भेद से उसके अनुभव में न्यूनाधिक्य-भाव हो जाय। किसी-न-किसी रूप में अनुभव तो सब करते ही हैं। इस जीव का आदि उत्पत्ति-स्थान आनन्द ही है। आनन्द का पुत्र होने के कारण वह सदा आनन्द की ही खोज करता रहा है। ‘मैं सदा आनन्द में ही बना रहूँ’ यह इसकी स्वाभाविक इच्छा होती है, होनी भी चाहिये। कारण कि जनक के गुण अन्य में जरूर ही आते हैं। इसलिये आनन्द से ही उत्पन्न होने के कारण यह आनन्द में ही रहना भी चाहता है और अन्त में आनन्द में ही मिल भी जाता है। जल का एक बिन्दु समुद्र से पृथक होता है, पृथक होकर चाहे वह अनेकों स्थान में भ्रमण कर आवे, किंतु अन्त में सर्वत्र घूमकर उसे समुद्र में ही आना पड़ेगा। समुद्र के अतिरिक्त उसकी दूसरी गति ही नहीं। भाप बन के वह बादलों मे जायगा। बादलों से वर्ष बनकर पृथ्वी पर बरसेगा। पृथ्वी से बहकर तालाब में जायगा, तालाब से छोटी नदी में पहुँचेगा, उसमें से फिर बड़ी नदी में, इसी प्रकार महानद के प्रवाह के साथ मिलकर वह समुद्र में ही पहुँच जायगा। कभी-कभी क्षुद्र तालाब के संसर्ग से उसमें दुर्गन्धि-सी भी प्रतीत होने लगेगी, किंतु चौमासे की महाबाढ़ में वह सब दुर्गन्धि साफ हो जायगी और वह भारी वेग के साथ अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच जायगा। मनन करने वाले प्राणियों का मन एक-सा ही होता है। सर्वत्र उसकी गति एक ही भाँति से संचालन करती है। सम्पूर्ण शरीर में चित्त की वृत्तियाँ किसी एक निर्धारित नियम के ही साथ कार्य करती हैं। जीव का मुख्य लक्ष्य है अपने प्रियतम के साथ जाकर योग करना। उसे प्यारे के पास पहुँचे बिना शान्ति नहीं, फिर वहाँ जाकर उसका बनकर रहना या उसी के स्वरूप में अपने को मिला देना, यह तो अपने-अपने भावों के ऊपर निर्भर है। कुछ भी क्यों न हो, पास तो पहुँचना ही होगा। योग तो करना ही पड़ेगा। बिना योग के शान्ति नहीं, योग तभी हो सकता है, जब चित्तवृत्तियों का निरोध हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो श्रीकृष्ण-संकीर्तन चित्तरूपी दर्पण का मार्जन करने वाला है, भवरूपी महादावाग्नि का शमन करने वाला है, जीवों के मंगल रूपी कैरवचन्द्रिका का वितरण करने वाला हैं, विद्यारूपी वधू का जीवन है, आनन्दरूपी सागर का वर्द्धन करने वाला, प्रत्येक पद पर पूर्णामृत को आस्वादन कराने वाला है और जो सर्व प्रकार से शीतलस्वरूप है उसकी विशेष रूप से जय हो। पद्यावली अ. 10/1