श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी40. कृपा की प्रथम किरण
हृदय में जब सरलता और सरसता का साम्राज्य स्थापित हो जाता है, तब चारों ओर से सद्गुण आ-आकर उसमें अपना निवास-स्थान बनाने लगते हैं। भगवद्भक्ति के उदय होने पर सम्पूर्ण सद्गुण उसके आश्रय में आकर बस जाते हैं। उस समय मनुष्य को पत्ते की खड़खड़ाहट में प्रियतम के पदों की धमक का भ्रम होने लगता है, वह पागल की भाँति चौंककर अपने चारों ओर देखने लगता है। यदि उसके सामने कोई उसके प्यारे की विरदावली का बखान करने लगे तब तो उसके आनन्द का पूछना ही क्या है, उस समय तो वह सचमुच पागल बन जाता है और उस बखान करने वाले के चरणों में लोटने लगता है। उसकी स्थिति उस विरहिणी की भाँति हो जाती है, जो चातक-पक्षी के मुख से भी ‘पिउ’ ‘पिउ’ की कर्णप्रिय मनोहर वाणी सुनकर अपने प्राण प्यारे की स्मृति में अधीर होकर नयनों से नीर बहाने लगती है। क्यों न हो, प्रियतम की पुण्य-स्मृति में मादकता ही इस प्रकार की है। महाप्रभु अपने प्रिय शिष्यों के साथ रास्ते में प्रेमालाप करते हुए अपने घर की ओर चले आ रहे थे कि रास्ते में उन्हें आचार्य रत्नगर्भ जी का घर मिला। ये महाप्रभु के सजातीय ब्राह्मण थे, ये भी सिलहट के ही निवासी थे। प्रभु को रास्ते में जाते देखकर इन्होंने प्रभु को बड़े ही आदर के साथ बुलाकर अपने यहाँ बिठाया। रत्नगर्भ महाशय बड़े ही कोमल प्रकृति के पुरुष थे। इनके हृदय में काफी भावुकता थी, सरलता की तो ये मानो मूर्ति ही थे। शास्त्रों के अध्ययन में इनका अनुपम अनुराग था। प्रभु के बैठते ही परस्पर शास्त्र-चर्चा छिड़ गयी। रत्नगर्भ महाशय ने प्रसंगवश श्रीमद्भागवत का एक श्लोक कहा। श्लोक उस समय का था, जब यमुना किनारे यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ भगवान के लिये भोज्यपदार्थ लेकर उनके समीप उपस्थित हुई थीं। श्लोक में भगवान के उसी स्वरूप का वर्णन था। बात यों थी कि एक दिन सभी गोपों के साथ बलराम जी के सहित भगवान वन में गौएँ चराने के लिये गये। उस दिन गोपों ने गँवारपन कर डाला, रोज जिधर गौओं को ले जाते थे, उधर न ले जाकर दूसरी ही ओर ले गये। उधर बड़ी मनोहर हरी-हरी घास थी। गौओं ने घास खूब प्रेम के साथ खायी और श्रीयमुना जी का निर्मल स्वच्छ जल पान किया। गौओं का तो पेट भर गया, किंतु ग्वाल-बाल व्रज की ही ओर टकटकी लगाये देख रहे थे कि आज हमारी छाक (भोजन) नहीं आयी। छाक कैसे आये, गोपियाँ तो रोज दूसरी ओर छाक लेकर जाती थीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिन्होंने भक्तों के वशीभूत होकर उन्हें सुख पँहुचाने के निमित्त भाँति-भाँति की अलौकिक लीलाए की हैं,; उन श्रीहरि के अद्वितीय गुणकर्मो तथा अद्भुत वीर्य-पराक्रमों के माहात्म्य का श्रवण करके प्रेमी भक्त के शरीर में कभी तो अत्यन्त हर्ष के कारण रोमांच हो जाते हैं, कभी आखों में से अश्रुधारा बहने लगती है, कभी गदगद कण्ठ से वह गान करने लगता है, कभी रोता है और कभी उन्मादी की भाँति प्रेम में निमग्न होकर नृत्य करने लगता है। श्रीमद्भा. 7/7/34