श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी39. सर्वप्रथम संकीर्तन और अध्यापकी का अन्त
जिन नयनों में प्रियतम की छबि समा गयी, जिस हृदय-मन्दिर में श्रीकृष्ण की परमोज्ज्वल परम प्रकाशयुक्त मूर्ति स्थापित हो गयी, फिर भला उसमें दूसरे के लिये स्थान कहाँ? जिनका मन-मधुप श्रीकृष्ण-कथारूपी मकरन्द का पान कर चुका है, जिनके चित्त को चितचोर ने अपनी चंचल चितवन से अपनी ओर आकर्षित कर लिया है, वे फिर अन्य वस्तु की ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते। उनकी जिह्वा सदा नारायणख्यपीयूष का ही निरन्तर पान करती रहेगी, उसके द्वारा संसारी बातें कही ही नहीं जा सकेंगी। उन्हीं कर्मों को वह कर्म समझेगा जिनके द्वारा श्रीकृष्ण के कमनीय कीर्तन में प्रगाढ़ रति की प्राप्ति हो सके। उसकी विद्या, बुद्धि, वैभव और सम्पदा तथा मेधा सभी एकमात्र श्रीकृष्ण-कथा ही है। महाप्रभु का चित्त अब इस लोक में नहीं रहा, वह तो कृष्णमय हो चुका। प्राण कृष्णरूप बन चुके, मन का उनके मनोहर गुणों के साथ तादात्म्य हो चुका, चित्त उस माखनचोर की चंचलता में समा गया। वाणी उसके गुणों की गुलाम बन गयी, अब वे करें भी तो क्या करें? संसारी कार्य करने के लिये मन, बुद्धि, चित्त, इन्द्रियाँ आदि कोई भी उनका साथ नहीं देतीं, वे दूसरे के वश में हो चुकीं। महाप्रभु की सभी चेष्टाएँ श्रीकृष्णमय ही होने लगीं। आचार्य गंगादास जी की मधुर ओर वात्सल्यपूर्ण भर्त्सना के कारण वह खूब सावधान होकर घर से पढ़ाने के लिये चले। विद्यार्थियों ने अपने गुरुदेव को आते देखकर उनके चरणकमलों में साष्टांक प्रणाम किया और सभी सुख से बैठ गये। विद्यार्थियों का पाठ आरम्भ हुआ। किसी विद्यार्थी ने पूछा- ‘अमुक धातु का किस अर्थ में प्रयोग होता है और अमुक लकार में उसका कैसा रूप बनेगा?’ इस प्रश्न को सुनते ही आप भावावेश में आकर कहने लगे- ‘सभी धातुओं का एक श्रीकृष्ण के ही नाम में समावेश हो सकता है, शरीर में जो सप्तधातु हैं ओर भी संसार में जितनी धातु सुनी तथा कही जा सकती हैं सभी के आदिकारण श्रीकृष्ण ही हैं। उनके अतिरिक्त कोई अन्य धातु हो ही न हीं सकती। सभी स्थितियों में उनके समान ही रूप बनेंगे। भगवान का रूप नील-श्याम है, उनके श्रीविग्रह की कान्ति नवीन जलधर की भाँति एकदम स्वच्छ और हल के नीले रंग की-सी है। उसे वैडूर्य या घन की उपमा तो ‘शाखाचन्द्रन्याय’ से दी जाती है, असल में तो वह अनुपमेय है, किसी भी संसारी वस्तु के साथ उसकी उपमा नहीं दी जा सकती।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिस कर्म के द्वारा हरि भगवान सन्तुष्ट हो सकें वास्तव में तो वही कर्म कहा जा सकता है और जिससे मुकुन्द-चरणों में रति उत्पन्न हो सके वही सच्ची विद्या है। जिस वर्ण, जिस कुल में और जिस आश्रम में रहकर श्रीकृष्ण-कीर्तन करने का सुन्दर सुयोग प्राप्त हो सके वही वर्ण, कुल तथा आश्रम शुभ और पमर श्रेष्ठ गिना जा सकता है।