श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी3. गुरु-वन्दना
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति गुरुदेव! तुम्हारे पादपद्मों में कोटि-कोटि प्रणाम है। अन्तर्यामिन्! तुम्हारे अनन्त गुणों का बखान यदि शेषनाग अपने सहस्र मुखों से सृष्टि के अन्त तक अहर्निश करते रहें तो भी उनका अन्त नहीं होगा। तब फिर मैं क्षुद्र प्राणी तुम्हारी विमल विरदावली का बखान भला किस प्रकार कर सकता हूँ? फिर भी तुम जाने जाते हो। तुम अगम्य हो, तो भी अधिकारी तुम तक पहुँचते हैं। तुम अनिर्वचनीय हो, तो भी शिष्य-प्रशिष्य परस्पर में मिलकर तुम्हारा निर्वचन करते हैं। तुम निर्गुण-निराकार हो फिर भी शिष्यों के प्रेमवश तुम सगुण-साकार होकर प्रकट होते हो। मनीषी तुम्हारे तत्त्व को परोक्ष बतलाते हैं, तो भी तुम प्रत्यक्ष होकर शिष्यों की पूजा-अर्चा को ग्रहण करते हो। हे गुरुदेव! इस प्रकार के तुम्हारे रूप को बारम्बार नमस्कार है। हे ज्ञानावतार! मेरी पात्रता-अपात्रता का विचार न करना। पारस लोहे की पात्रता की ओर ध्यान नहीं देता, वह तो सामने आये हुए हर प्रकार के लोहे को सुवर्ण कर देता है, क्योंकि उसका स्वभाव ही लोहे को कांचन बनाना है। तुम्हारे योग्य पात्रता क्या इन पार्थिव प्राणियों में कभी आ सकती है? अपने स्वभाव का ही ध्यान रखना। तुम्हारे दयालु स्वभाव की प्रशंसा सुनकर ही मैं समिधा हाथ में लिये हुए तुम्हारे श्रीचरणों में आया हूँ। ये वन्य पुष्प हैं, अभी की लायी हुई ये कुशा हैं और ये सूखी समिधा हैं, यही मेरे पास उपहार है और सम्भवतया यही तुम्हें प्रिय भी होगा। हे निरपेक्ष! मेरी प्रार्थना स्वीकार करो और मुझे अपने चरणों में शरण दो। तुम्हारे पादपद्मों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम है। हे त्रिगुणातीत! मैं तुम्हारी दया का भिखारी हूँ, हम नेत्रहीनों को एकमात्र तुम्हारा ही आश्रय है। अज्ञान-तिमिर ने हमारी ज्योति को नष्ट कर दिया है? इसे अपनी कृपारूपी सलाका से उन्मीलित कर दो। जिससे हम तुम्हारी छवि का दर्शन कर सकें। हे मेरे उपास्यदेव! तुम्हें छोड़कर संसार में मेरा और कौन ऐसा हितैषी है? तुम ही एकमात्र मेरे आधार हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जो ब्रह्मानन्द स्वरूप हैं, परम सुख के देने वाले हैं, उनके सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं। जो मूर्तिमान ज्ञान हैं, द्वन्द्वों से परे हैं, गगन के समान सर्वत्र व्यापक हैं, ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों के लक्ष्य हैं। जो एक हैं, नित्य हैं, मलरहित हैं, अचल हैं तथा सम्पूर्ण प्राणियों की बुद्धि के साक्षिस्वरूप हैं, जो भावों से परे हैं, तीनों गुणों से रहित हैं, इस प्रकार के अपने सदुरू के लिये मैं नमस्कार करता हूँ।