श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी31. सर्वप्रिय निमाई
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः। न तो बाह्य सौन्दर्य ही सौन्दर्य है और न बाह्य पवित्रता ही असली पवित्रता है। जिसका हृदय शुद्ध है, उसमें तनिक भी विकार नहीं है तो वह बदसूरत होने पर भी सुन्दर प्रतीत होता है, लोग उसके आन्तरिक सौन्दर्य के कारण उस पर मुग्ध हो जाते हैं और उसके इशारे पर नाचने लगते हैं। भीतर की पवित्रता ही चेहरे पर झलकने लगती है। उस पवित्रता में मोहकता है, इसी से लोग उनके वश में हो जाते हैं। यदि हृदय भी स्वच्छ शीशे की भाँति निर्मल हो और देह की कान्ति भी कमनीय और मनोहर हो तब तो उस देवतुल्य मनुष्य की मोहकता का कहना ही क्या है। फिर तो सोने में सुगन्ध ही है। ऐसा कौन सहृदय पुरुष होगा, जो ऐसे पुरुष के गुणों का प्रशंसक नहीं बन जाता। यदि ऐसा पुरुष प्रसन्नचित्त और चुलबुले स्वभाव का भी हो, तब तो सभी लोग उससे आत्मीय की भाँति स्नेह करने लगते हैं और उससे किसी भी मनुष्य को संकोच अथवा उद्वेग नहीं होता। बच्चे से लेकर बूढे़ तक उससे खिलावाड़ करने लगते हैं। निमाई पण्डित में उपर्युक्त सभी गुण विद्यमान थे। उनका हृदय अत्यन्त ही कोमल और बड़ा ही विशाल था, उसमें मनुष्यमात्र के ही लिये नहीं, प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और ममता के भाव भरे हुए थे, उनका शरीर सुगठित, सुन्दर और शोभायुक्त था। वे इतने अधिक सुन्दर थे कि मनुष्य उनके सौन्दर्य को ही देखकर मोहित हो जाते थे। चेहरे पर कभी सिकुड़न ही नहीं पड़ती थी। हर समय हँसते ही रहते और साथियों को भी अपनी विनोदपूर्ण बातों से सदा हँसाते रहते थे। स्वभाव में इतना चुलबुलापन था कि छोटे-छोटे बच्चों के स्वभाव को भी मात कर देते थे। इन्हीं सब कारणों से नगर के सभी लोग इनसे आन्तरिक स्नेह रखते थे, जो भी इन्हें देख लेता वही प्रसन्नता से खिल उठता। सभी जानते थे, निमाई अब बालक नहीं हैं, वे नवद्वीप के एक नामी पण्डित हैं, इन्होंने शास्त्रार्थ में दिग्विजयी पण्डित को परास्त किया है, ये अपने लोकोत्तर प्रतिभा के कारण बंगाल के कोने-कोने में प्रसिद्ध हो गये हैं। सैकड़ों छात्र इनके पास विद्याध्ययन करने आते हैं, फिर भी वे उन्हें अपना एक साथी तथा प्रेमी ही समझते थे। उन लोगों को यह खयाल कभी नहीं होता था कि ये बड़े आदमी हैं, इनके साथ सम्मान और शिष्टाचार का व्यवहार करना चाहिये। ये यदि शिष्टाचार या सम्मान करना भी चाहें तो निमाई पण्डित उन्हें ऐसा करने का अवकाश ही कब देने वाले थे। ये उन सबसे बिना बात ही छेड़खानी करते। बड़े-बड़े लोगों से परिहास करने में नहीं चूकते थे। इनके सभी कार्य विचित्र होते और उनसे सभी को प्रसन्नता होती। ये नवद्वीप के प्रत्येक मुहल्ले में घूमते। कभी इस मुहल्ले से उस मुहल्ले में जा रहे हैं और उस मुहल्ले से इसमें। रास्ते में जो भी मिल जाता है उसी से कुछ-न-कुछ छेड़खानी करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसे देखकर लोगों के मन में किसी प्रकार का भय या डर नहीं होता और जो दूसरों से भी किसी प्रकार की शंका नहीं करता, उनके सामने निर्भीकता के साथ बर्ताव करता है। जिसके लिये प्रसन्नता और अप्रसन्नता दोनों ही समान हैं, वह संसारी मनुष्य कभी हो ही नहीं सकता। वह तो भगवान का अत्यन्त ही प्रिय नित्य शुद्ध मुक्तस्वरूप है। गीता 12/15