श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी30. दिग्विजयी का वैराग्य
इसे तुम्हें इस दिग्विजय का और मेरे दर्शनों का फल ही समझना चाहिये। यदि आज तुम्हारी पराजय न होती तो तुम्हारा अभिमान और भी अधिक बढ़ता। अभिमान ही नाश का मुख्य हेतु है। तुम निमाई पण्डित को साधारण पण्डित ही न समझो। वे साक्षात नारायणस्वरूप हैं, वे नररूपधारी श्रीहरि ही हैं, उन्हीं की शरण में जाओ, तभी तुम्हारा कल्याण होगा और तुम इस मोहरूपी अज्ञान से मुक्त हो सकोगे।’ इतने में ही दिग्विजयी की आँखें खुल गयीं। देखते क्या हैं भगवान भुवनभास्कर प्राचीदिशि में उदित होकर अपनी जगन्मोहिनी हँसी के द्वारा सम्पूर्ण संसार को आलोक प्रदान कर रहे हैं। पण्डित केशव काश्मीरी को प्रतीत हुआ मानो मरीचिमाली भगवान मेरे पराभव के ही ऊपर हँस रहे हैं। वे जल्दी से कुर्ता पहनकर नंगे सिर और नंगे पैरों अकेले ही निमाई के घर की ओर चले। रास्ते में जो भी इन्हें इस वेश में जाते देखता, वही आश्चर्य करने लगता। राजा-महाराजाओं की भाँति जो हाथी पर सवार होकर निकलते थे, जिनके हाथी के आगे-आगे चोबदार नगाड़े बजा-बजाकर आवाज देते जाते थे, वे ही दिग्विजयी पण्डित आज नंगे पैरों साधारण आदमियों की भाँति नगर की ओर कहाँ जा रहे हैं? इस प्रकार सभी उन्हें कुतूहल की दृष्टि से देखने लगे। कोई-कोई तो उनके पीछे भी हो लिये। नगर में जाकर उन्होंने बच्चों से निमाई पण्डित के घर का पता पूछा। झुंड-के-झुंड लड़के उनके साथ हो लिये और उन्होंने निमाई पण्डित का घर बता दिया। उस समय गौर गंगा-स्नान करके तुलसी में जल दे रहे थे। सहसा दिग्विजयी पण्डित को सादे वेश में अकेले ही अपने घर की ओर आते देख उन्होंने दौड़कर उनका स्वागत किया। दिग्विजयी आते ही प्रभु के चरणों में गिर गये। प्रभु ने जल्दी से उन्हें उठाकर छाती से लगाते हुए कहा- ‘हैं हैं, महाराज! यह आप कर क्या रहे हैं? मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ। आप जगत-पूज्य हैं, आप ऐसा करे मुझ पर पाप क्यों चढ़ा रहे हैं? आप मुझे आशीर्वाद दीजिये, आप ही मेरे पूजनीय और परम माननीय हैं।’ गद्गद-कण्ठ से दिग्विजयी ने कहा- ‘प्रभो! मान-प्रतिष्ठा की भयंकर अग्नि में दग्ध हुए इस पापी को और अधिक सन्ताप न पहुँचाइये। इस प्रतिष्ठारूपी सूकरी-विष्ठा को खाते-खाते पतित हुए इस नारकीय को और अधिक पतित न बनाइये। अब मेरा उद्धार कीजिये।’ प्रभु उनका हाथ पकड़कर भीतर ले गये और बड़े सत्कार से उन्हें बिठाकर कहने लगे- ‘आपने यह क्या किया, पैदल ही यहाँ तक कष्ट किया, मुझे आज्ञा भेज देते तो मैं स्वयं ही आपके डेरे पर उपस्थित होता। |