श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी29. दिग्विजयी का पराभव
परैः प्रोक्ता गुणा यस्य निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्। महामहिम निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी पण्डित के साथ वार्तालाप करना चाहते थे, वे भरी सभा में उस मानी और वयोवृद्ध पण्डित की हँसी करना ठीक नहीं समझते थे। प्रायः देखा गया है, भरी सभा में लोगों के सामने अपने सम्मान की रक्षा के निमित्त शास्त्रार्थ करने वाले झूठी बात पर भी अड़ जाते हैं और उसे येन-केन प्रकारेण सत्य ही सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। सत्य को झूठ और झूठ को सत्य करने के कौशल का ही नाम तो आजकल असल में शास्त्रार्थ करना है। निमाई उससे शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते थे, किन्तु उसे यह बताना चाहते थे कि संसार में परमात्मा के अतिरिक्त अद्वितीय वस्तु कोई नहीं है। कोई कितना भी अभिमान क्यों न कर ले, संसार में उससे बढ़कर कोई-न-कोई मिल ही जायगा। ब्रह्मा जी की बनायी हुई इस सृष्टि में यही तो विचित्रता है, कहावत है- ‘मल्लन कूँ मल्ल घनेरे, घर नाहिं तो बाहिर बहुतेरे’ अर्थात ‘बलवानों को बहुत-से बलवान मिल जाते हैं, उने समीप उनके समान न भी हों तो बाहर बहुत-से मिल जायँगे।’ इसी बात को जताने के निमित्त निमाई पण्डित एकान्त में दिग्विजयी से बातें करना चाहते थे। सन्ध्या का समय है, कलकलनादिनी भगवती भागीरथी अपनी द्रुत गति से सदा की भाँति सागर की ओर दौड़ी जा रही हैं, मानो उन्हें संसारी बातें सुनने का अवकाश ही नहीं, वे अपने काम में बिना किसी की परवा किये हुए निरन्तर लगी हुई हैं। कलरव करते हुए भाँति-भाँति के पक्षी आकाश-मार्ग से अपने-अपने कोटरों की ओर उड़े जा रहे हैं। भगवान भुवनभास्कर के अस्ताचल में प्रस्थान करने के कारण विधवा की भाँति सन्ध्या देवी रुदन कर रही है। शोक के कारण उसका चेहरा लाल पड़ गया है, मानो उसे ही प्रसन्न करने के निमित्त भगवान निशानाथ अपनी सोलहों कलाओं सहित गगन में उदित होकर प्राणिमात्र को शीतलता प्रदान कर रहे हैं। पुण्यतोया जाह्नवी के वैडूर्य के समान स्वच्छ नील-जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब बड़ा ही भला मालूम होता है। प्रायः सभी पाठशालाओं के बहुत-से मेधावी छात्र गंगा जी के जल के बिलकुल सन्निकट बैठकर शास्त्रचर्चा कर रहे हैं। एक-दूसरे से प्रश्न पूछता है, वह उसका उत्तर देता है, पूछने वाला उसका फिर से खण्डन करता है। उत्तर देने वाले की दस-पाँच विद्यार्थी मिलकर सहायता करते हैं, अब सहायता करने वालों से शास्त्रार्थ छिड़ जाता है। इस प्रकार सब एक-दूसरे को परास्त करने की जी-जान से चेष्टा कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दूसरे लोग जिसकी प्रशंसा करें तो वह निर्गुण होने पर भी गुणवान हो जाता है और जो अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से करता है, फिर चाहे वह त्रिलोकेश इन्द्र ही क्यों न हो, उसे भी नीचा देखना पड़ता है। सु. र. भां. 87/1