चातुर्होम यज्ञ का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 25 में चातुर्होम यज्ञ का वर्णन हुआ है।[1]

ब्राह्मण का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्राह्मण ने कहा- प्रिये! इसी विषय में चार होताओं से युक्त या का जैसा विधान है, उसको बताने वाले इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। भद्रे! उस सबके विधि विधान का उपदेश किया जाता है। तुम मेरे मुख से इस अद्भुत रहस्य को सुनो।

चार होताओं का वर्णन

भाविनि! करण, कर्म, कर्ता और मोक्ष- ये चार होता है, जिनके द्वारा यह सम्पूर्ण जगत आवृत है। इनके जो हेतु हैं, उन्हें युक्तियों द्वारा सिद्ध किया जाता है। वह सब पूर्णरूप से सुनो। घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा, पाँचवाँ कान तथा मन और बुद्धि- ये सात कारण रूप हेतु गुणमय जानने चाहिये। गन्ध, रस, रूप, शब्द, पाँचर्वा स्पर्श तथा मन्तव्य और बोद्धव्य- ये सात विषय कर्मरूप हेतु हैं। सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, बोलने वाला, पाँचवाँ सुनने वाला तथा मनन करने वाला और निश्चयात्मक बोध प्राप्त करने वाला- ये सात कर्तारूप हेतु हैं।ये प्राण आदि इन्द्रियाँ गुणवान हैं, अत: अपने शुभाशुभ विषयों रूप गुणों का उपभोग करती हैं। मैं निर्गुण और अनन्त हूँ, (इनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, यह समझ लेेने पर) ये सातों- घ्राण आदि मोक्ष के हेतु होते हैं। विभिन्न विषयों का अनुभव करने वाले विद्वानों के घ्राण आदि अपने अपने स्थान को विधिपूर्वक जानते हैं और देवता रूप होकर सदा हविष्य का भोग करते हैं। अज्ञानी पुरुष अन्न भोजन करते समय उसके प्रति ममत्व से युक्त हो जाता है।

चातुर्होम यज्ञ का वर्णन

इसी प्रकार जो अपने लिये भोजन पकाता है, वह भी ममत्व दोष से मारा जाता हैं। वह अभक्ष्य भक्षण और मद्यपान जैसे दुर्व्यसनों को भी अपना लेता है, जो उसके लिये घातक होते हैं। वह भक्षण के द्वारा उस अन्न की हत्या करता है और उसकी हत्या करके वह स्वयं भी उसके द्वारा मारा जाता है। जो विद्वान इस अन्न को खाता है, अर्थात अन्न से उपलक्षित समसत प्रपंच को अपने आप में लीन कर देता है, वह ईश्वर सर्व समर्थ होकर पुन: अन्न आदि का जनक होता है। उस अन्न से उस विद्वान पुरुष में कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म दोष भी नहीं उत्पन्न होता। जो मन से अवगत होता है, वाणी द्वारा जिसका कथन होता है, जिसे कान से सुना और आँख से देखा जाता है, जिसको त्वचा से छूआ और नासिका से सूँध्ज्ञा जाता है। इन मन्तव्य आदि छाहों विषय रूपी हविष्यों का मन आदि छाहों इन्द्रियों के संयमपूर्वक अपने आप में होम करना चाहिये। उस होम के अधिष्ठानभूत गुणवान पावकरूप परमात्म का मेरे तन मन के भीतर प्रकाशित हो रहे हैं। मैंने योग रूपी यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया है। इस यज्ञ का उद्भव ज्ञानरूपी अग्नि को प्रकाशित करने वाला है।

इसमें प्राण ही स्तोत्र है, अपान शस्त्र है और सर्वस्व का त्याग ही उत्तम दक्षिणा है। कर्ता (अंहकार), अनुमन्ता (मन) और आत्मा (बुद्धि)- ये तीनों ब्रह्मरूप होकर क्रमश: होता, अध्वर्यु और उद्गाता हैं। सत्यभाषण ही प्रशास्ता का शस्त्र है और अपवर्ग (मोक्ष) ही उस यज्ञ की दक्षिणा है।[1] नारायण को जान ने वाले पुरुष इस योग यज्ञ के प्रमाण में ऋचाओं का भी उल्लेख करते हैं। पूर्वकाल में भगवान नारायण देव की प्राप्ति के लिये भक्त पुरुषों ने इन्द्रियरूपी पशुओं को अपने अधीन किया था। भगवत्प्राप्ति हो जाने पर परमानन्द से परिपूर्ण हुए सिद्ध पुरुष जो सामगान करते हैं, उसका दृष्टान्त तैत्तिरीय उपनिषद के विद्वान ‘एतत् सामगायन्नास्ते’ इत्यादि मंत्रों के रूप में उपस्थित करते हैं। भीरू! तुम उस सर्वात्मा भगवान नारायण देव का ज्ञान प्राप्त करो।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-15
  2. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 25 श्लोक 16-17

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