चरावत बृंदावन हरि गाइ।
सखा लिए सँग, सुबल, सुदामा डोलत हैं सुख पाइ।
क्रीड़ा करत जहाँ तहँ सब मिलि, अति आनंद बढ़ाइ।
बगरि गई गैयाँ वन-बीथिन देखी अति बहुताइ।
कोउ गए ग्वाल गाइ बन घेरन कोउ गए बछरु लिवाइ।
आपहिं रह अकेले बन मैं, कहुं हलधर रहे जाइ।
बंसीबट सीतल जमुना-तट, अतिहिं परम सुखदाइ।
सूर स्याम तहँ बैठि बिचारत, सखा कहाँ बिरमाइ।।500।।