चतुर्भुजदास

चतुर्भुजदास
चतुर्भुजदास
पूरा नाम चतुर्भुजदास
जन्म संवत 1575 (1518 ई.) विक्रमी
जन्म भूमि जमुनावतो ग्राम
मृत्यु संवत 1642 विक्रमी (1585 ई.)
मृत्यु स्थान रुद्रकुण्‍ड
अभिभावक कुम्भनदास
कर्म भूमि ब्रजभूमि
कर्म-क्षेत्र श्रीनाथ जी की भक्ति व सेवा।
मुख्य रचनाएँ 'द्वादशयश', 'भक्तिप्रताप', 'हितजू को मंगल', 'मंगलसार यश', 'शिक्षासार यश' आदि।
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि अष्टछाप कवि
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख अष्टछाप कवि, विट्ठलनाथ, कुम्भनदास, गोवर्धन
दीक्षा गुरु गोसाईं विट्ठलनाथ
अन्य जानकारी चतुर्भुजदास की काव्‍य और संगीत की निपुणता से प्रसन्‍न होकर श्रीविट्ठलनाथ जी ने उनको 'अष्टछाप' में सम्मिलित कर लिया था। वृद्ध पिता के साथ अष्टछाप के कवियों में एक प्रमुख स्‍थान प्राप्‍त करना उनकी दृढ़ भगवद्भक्ति का परिचायक है।

चतुर्भुजदास 'राधावल्लभ सम्प्रदाय' के प्रसिद्ध भक्त थे। इनका वर्णन नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में किया है। उसमें जन्मस्थान, सम्प्रदाय, छाप और गुरु का भी स्पष्ट संकेत है। ध्रुवदास ने भी 'भक्त नामावली' में इनका वृत्तान्त लिखा है। इन दोनों जीवनवृत्तों के आधार पर चतुर्भुजदास गोंडवाना प्रदेश, जबलपुर के समीप गढ़ा नामक गाँव के निवासी थे।

जन्म

चतुर्भुजदास का जीवन चरित्र आजीवन चमत्‍कारों और अलौकिक घटनाओं से सम्‍पन्‍न स्‍वीकार किया जाता है। उनका जन्‍म संवत 1575 (1518 ई.) विक्रमी में जमुनावतो ग्राम में हुआ था। वे 'पुष्टिमार्ग' के महान भगवद्भक्‍त महात्‍मा कुम्भनदास जी के सबसे छोटे पुत्र थे। कुम्भनदास जी ने बाल्‍यावस्‍था से ही उनके लिये भक्‍तों का सम्‍पर्क सुलभ कर दिया था। वे उनके साथ श्रीनाथ जी के मन्दिर में दर्शन करने भी जाया करते थे। पारिवारिक वातावरण का उनके चरित्र-विकास पर बड़ा प्रभाव पड़ा था।

श्रीनाथ जी की सेवा

कुम्भनदास के सत्‍प्रयत्‍न से गोसाईं वि‍ट्ठलनाथ जी ने चतुर्भुजदास को जन्‍म के इकतालीस दिनों के बाद ही ब्रह्म-सम्‍बन्‍ध दे दिया था। वे वाल्‍यावस्‍था से ही पिता की देखा-देखी पद-रचना करने लगे थे। घर पर अनासक्तिपूर्वक रहकर खेती-बारी का भी काम संभालते थे। श्रीनाथ जी की सेवा में उनका मन बहुत लगता था। बाल्‍यावस्‍था से ही भगवान की अन्‍तरंग लीलाओं की उन्‍हें अनुभूति होने लगी थी। उन्‍हीं के अनुरूप वे पद-रचना किया करते थे।

अष्टछाप के कवि

चतुर्भुजदास की काव्‍य और संगीत की निपुणता से प्रसन्‍न होकर श्रीविट्ठलनाथ जी ने उनको 'अष्टछाप' में सम्मिलित कर लिया था। वृद्ध पिता के साथ अष्टछाप के कवियों में एक प्रमुख स्‍थान प्राप्‍त करना उनकी दृढ़ भगवद्भक्ति, कवित्‍वशक्ति और विरक्ति का परिचायक है।

सखाभाव भक्ति

ब्रह्म-सम्‍बन्‍ध से गौरवान्वित होने के बाद चतुर्भुजदास अपने पिता के साथ जमुनावतो में ही रहा करते थे। नित्‍य उनके साथ श्रीनाथ जी की सेवा और कीर्तन तथा दर्शन के लिये गोवर्धन आया करते थे। कभी-कभी गोकुल में नवनीतप्रिय के दर्शन के लिये भी जाते थे, पर श्रीनाथ जी का विरह उनके लिये असह्य हो जाया करता था। श्रीनाथ जी में उनकी भक्ति सखाभाव की थी।

भगवान उन्‍हें प्रत्‍यक्ष दर्शन देकर साथ में खेला करते थे। भक्‍तों की इच्‍छापूर्ति के लिये ही भगवान अभिव्‍यक्‍त होते हैं। श्रीविट्ठलनाथ महाराज की कृपा से चतुर्भुजदास को प्रकट और अप्रकट लीला का अनुभव होने लगा। एक समय श्रीगोसाईं जी भगवान का श्रृंगार कर रहे थे, दर्पण दिखला रहे थे। चतुर्भुजदास जी रूप-माधुरी का आस्‍वादन कर रहे थे। उनके अधरों की भारती मुसकरा उठी-

"सुभग सिंगार निरखि मोहन कौ
ले दर्पन कर पियहि दिखावैं।।"

भक्त की वाणी का कण्‍ठ पूर्णरूप से खुल चुका था। उनका मन भगवान के पादारविन्‍द-मकरन्‍द के मद से उन्‍मत्‍त था। उनके नयनों ने विश्‍वासपूर्वक सौन्‍दर्य का चित्र उरेहा-

"माई री आज और, काल और,
छिन छिन प्रति और और।।"

भगवान के नित्‍य सौन्‍दर्य में अभिवृद्धि की रेखाएं चमक उठीं। भगवान का सौन्‍दर्य तो क्षण-क्षण में नवीनता से अलंकृत होता रहता है। यही तो उसका वैचित्र्य है। लीला-दर्शन करने वाले को भगवान सदा नये-नये ही लगते हैं।

भक्ति प्रसंग

  • एक समय गोसाईं विट्ठलनाथ गोकुल में थे। गोसाईं जी के पुत्रों ने पारसोली में 'रासलीला' की योजना की। उस समय श्रीगोकुलनाथ जी ने चतुर्भुजदास से पद गाने का अनुरोध किया। चतुर्भुजदास तो रससम्राट श्रीनाथ जी के सामने गाया करते थे। भक्त अपने भगवान के विरह में ही लीन थे। श्रीनाथ जी ने चतुर्भुजदास पर कृपा की। श्रीगोकुलनाथ ने उनसे गाने के लिये फिर कहा और विश्‍वास दिलाया कि आपके पद को भगवान प्रकटरूप से सुनेंगे। चतुर्भुजदास ने पद गाना आरम्‍भ किया। भक्‍त गाये और भगवान प्रत्‍यक्ष न सुनें, यह कैसे हो सकता है। उनकी यह दृढ़ प्रतिज्ञा है कि मेरे भक्‍त जहाँ गाते हैं, वहाँ में उपस्थित रहता हूँ। भगवान प्रकट हो गये, पर उनके दर्शन केवल चतुर्भुजदास और श्रीगोकुलनाथ को ही हो सके। गोकुलनाथ जी को विश्‍वास हो गया कि भगवान भक्‍तों के हाथ में किस तरह नाचा करते हैं। चतुर्भुजदास ने गाया-

"अद्भुत नट वेष धरें जमुना तट।
स्‍यामसुन्दर गुननिधान।।
गिरिबरधरन राम रैंग नाचे।"

रात बढ़ती गयी, देखने वालों के नयनों पर अतृप्ति की वारुणी चढ़ती गयी।

  • भक्त की प्रसन्‍नता और संतोष के लिये भगवान अपना विधान बदल दिया करते हैं। एक समय श्रीविट्ठलनाथ जी ने विदेश-यात्रा की। उनके पुत्र श्रीगिरिधर ने श्रीनाथ जी को मथुरा में अपने निवास स्‍थान पर पधराया। चतुर्भुजदास श्रीनाथ जी के विरह में सुध-बुध भूलकर गोवर्धन पर एकान्‍त स्‍थान में हिलग और विरह के पद गाया करते थे। श्रीनाथ जी संध्‍या समय नित्‍य उन्‍हें दर्शन दिया करते थे। एक दिन वे पूर्णरूप से विरहविदग्‍ध होकर गा रहे थे-

"श्रीगोबर्धनवासी सांवरे लाल,
तुम बिन रह्यौ न जाय हो।"

भगवान भक्‍त की मनोदशा से स्‍वयं व्‍याकुल हो उठे। उन्‍होंने गिरिधरजी को गोवर्धन पधारने की प्रेरणा दी। चतुर्दशी को एक पहर रात शेष रहने पर कहा कि- "आज राजभोग गोवर्धन पर होगा"। भगवान की लीला सर्वथा विचित्र है। 'नरसिंह चतुर्दशी' को वे गोवर्धन लाये गये। राजभोग में विलम्‍ब हो गया, राजभोग और शयन-भोग साथ-ही-साथ दोनों उनकी सेवा में रखे गये। 'नरसिंह चतुर्दशी' को वे उसी दिन से दो राजभोग की सेवा से पूजित होते हैं।

रचनाएँ

चतुर्भुजदास के बारह ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जो 'द्वादश यश' नाम से विख्यात हैं। सेठ मणिलाल जमुनादास शाह ने अहमदाबाद से इसका प्रकाशन कराया था। ये बारह रचनाएँ पृथक-पृथक नाम से भी मिलती हैं। 'हितजू को मंगल' , 'मंगलसार यश' और 'शिक्षासार यश' इनकी उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थित है। इनके बनाए निम्न ग्रंथ मिले हैं-

  1. द्वादशयश
  2. भक्तिप्रताप
  3. हितजू को मंगल
  4. मंगलसार यश
  5. शिक्षासार यश

प्रेरक प्रसंग

गोंडवाना प्रदेश में जनता काली जी की उपासना करती थी और पशुबलि से देवी को प्रसन्न करने में ही अपनी समस्‍त साधना और उपासना की फलसिद्धि समझती थी। भयंकर पशुबलि ने भक्त चतुर्भुज के सीधे-सादे हृदय को क्षुब्‍ध कर दिया। वे परम भागवत थे। उन्‍होंने धीरे-धीरे लोगों में भगवान की भक्ति का प्रचार करना आरम्‍भ किया। जनता को अपनी मूर्खताजन्‍य पशुबलि और गलत उपासना-पद्धति की जानकारी हो गयी। भक्त चतुर्भुज के निष्‍कपट प्रेम और उदार मनोवृत्ति ने जनता के मन में उनके प्रति सहानुभूति की भावना भर दी, उनके दैवी गुणों का प्रभाव बढ़ने लगा। भक्त चतुर्भुज नित्‍य भागवत की कथा कहते थे और संत-सेवा में शेष समय का उपयोग करते थे। भागवती कथा की सुधा-माधुरी से भक्ति की कल्‍पलता फूलने-फलने लगी। लोग अधिकाधिक संख्‍या में उनकी कथा में आने लगे। भक्त का चरित्र ही उनके सत्‍कार्यके लिये विशाल क्षेत्र प्रस्‍तुत कर देता है। वे अपने प्रचार का ढिंढोरा नहीं पीटा करते। एक समय इनकी कथा में एक उचक्‍का चोर आया। उसके पास चोरी का धन था। सौभाग्‍य से उसमें वह व्‍यक्ति भी उपस्थित था, जिसके घर उसने चोरी की थी। कथा-प्रसंग में चोर ने सुना कि ‘जो भगवत-मंत्र की दीक्षा लेता है, उसका नया जन्‍म होता है।' चोर भक्त का दर्शन कर चुका था, भगवान की कथा-सुधा का माधुर्य उसके हृदय-प्रदेश में पूर्णरूप से प्रस्‍फुटित हो रहा था, चोरी के कुत्सित कर्म से उसका सहज ही उद्धार होने का समय सन्निकट था। कथा सुनने का तो परम पवित्र फल ही ऐसा होता है। उसने चोरी का धन कथा की समाप्ति पर चढ़ा दिया। वह निष्‍कलंक, निष्‍कपट और पापमुक्त हो चुका था, भगवान का भक्त बन चुका था। धनी व्‍यक्ति ने उसे पकड़ लिया, उस पर चोरी का आरोप लगाया पर उसका तो वास्‍तव में नया जन्‍म हो चुका था; उसने हाथ में जलता फार लेकर कहा कि इस जन्‍म में मैंने कुछ नहीं चुराया है। बात ठीक ही तो थी, अभी कुछ ही देर पहले उसे नया जन्‍म मिला था। धनी व्‍यक्ति बहुत लज्जित हुआ। राजा ने संत पर चोरी का आरोप लगाने के अपराध में धनी को मरवा डालना चहा, पर संत तो परहित चिन्‍तन की ही साधना में रहते हैं। चोर ने, जो पूर्ण संता हो चुका था, सारी बात स्‍पष्‍ट कर दी। भक्त चतुर्भुज की कथा का प्रभाव उस पर ऐसा पड़ा था कि धनी व्‍यक्ति को दण्डित होते देखकर उसके नयनों से अश्रुपात होने लगा, राजा को उसने अपनी साधुता और स्‍पष्‍टवादिता से आकृष्‍ट कर लिया। राजा के मस्तिष्‍क पर चतुर्भुज की कथा का अमिट रंग चढ़ चुका था; वह भी उनका शिष्‍य हो गया और भागवत धर्म के प्रचार में उसने उनको पूरा-पूरा सहयोग दिया।[1]

  • एक बार कुछ संत इनके खेत के निकट पहुँच गये। चने और गेहूँ के खेत पक चुके थे, संतों ने बालें तोड़कर खाना आरम्‍भ किया। रखवाले ने उन्‍हें ऐसा करने से रोका और कहा कि ‘ये चतुर्भुज के खेत हैं।' संतों ने कहा, ‘तब तो हमारे ही खेत हैं।' रखवाला जोर-जोर से चिल्‍लाने लगा कि साधु लोग बालें तोड़-तोड़कर खा रहे हैं और कहते हैं कि ये खेत तो हमारे ही हैं। भक्त चतुर्भुज के कान में यह रहस्‍यमयी मधुर बात पड़ी ही थी कि उनके रोम-रोम में आनन्‍द का महासागर उमड़ आया। उन्‍होंने अपने सौभाग्‍य की सराहना की कि ‘आज संतों ने मुझको अपना लिया, मेरी वस्‍तु को अपनाकर मेरी जन्‍म-जन्‍म की साधना सफल कर दी।' उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु छा गये, वे गुड़ तथा कुछ मिष्‍ठान्‍न लेकर खेत की ओर चल पड़े। संतों की चरण-धूलि मस्‍तक पर चढ़ाकर अपनी भक्तिनिष्‍ठा का सिन्‍दूर अमर कर लिया उन्‍होंने।[1]

देहावसान

चतुर्भुजदास का देहावसान संवत 1642 विक्रमी (1585 ई.) में रुद्रकुण्‍ड पर एक इमली के वृक्ष के नीचे हुआ। वे श्रृंगार मिश्रित भक्ति-प्रधान कवि, रसिक और महान भगवद्भक्‍त थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 711

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