गोस्वामी रूपलाल

गोस्वामी रूपलाल
गोस्वामी रूपलाल
पूरा नाम गोस्वामी श्रीरूपलालजी महाराज
जन्म विक्रम संवत 1738 (1681 ई.) वैशाख कृष्‍ण सप्‍तमी।
अभिभावक पिता- नाम गोस्‍वामी श्रीहरिलाल, माता- श्रीकृष्‍णकुँवरि।
कर्म भूमि ब्रज
मुख्य रचनाएँ 'अष्‍टयाम-सेवाप्रबन्‍ध', 'मानसी सेवाप्रबन्‍ध', 'आचार्य-गुरु-सिद्धान्‍त', 'नित्‍य-विहार', 'गूढ़-ध्‍यान', 'पद सिद्धान्‍त', 'राधास्‍तोत्र', 'व्रज-भक्ति', 'वाणी-विलास'।
भाषा ब्रजभाषा
प्रसिद्धि रसिकाचार्य
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख वृन्दावन, गोवर्धन, श्रीराधा, श्रीकृष्ण
अन्य जानकारी गोस्‍वामी श्रीहितरूपलाल जी महाराज 'राधावल्‍लभीय सम्‍प्रदाय' के केवल आचार्य ही नहीं वरन् एक सच्चे रसिक संत थे। इनका चरित्र ही इनकी इष्‍ट-निष्‍ठा, प्रीति, भक्ति, सेवा, लगन, नि:स्‍पृह भाव, दयालुता, लोकसेवा, निर्वैरता आदि का साक्षी है।

गोस्वामी रूपलाल श्रीराधा-कृष्ण के अनन्य भक्तों में से थे। इनके शब्‍दों से प्रस्‍फुटित होने वाली श्रद्धा, भक्ति और सेवा-निष्‍ठा लोगों को निरुत्‍तर ही नहीं करती थी वरन् सेवा-परायण भी बना देती थी। सेवा की इस लगन ने इनमें केवल ग्‍यारह वर्ष की ही अवस्‍था में एक विलक्षणता उत्‍पन्‍न कर दी थी। ये सेवा करते, चलते-फिरते, हर समय अपने सामने 'युगल सरकार' का ही दर्शन किया करते थे।

जन्म

रसिकाचार्य गोस्‍वामी श्रीहितहरिवंशचन्‍द्र महाप्रभुपाद के पवित्र एवं भक्ति-परायण कुल में गोस्‍वामी श्रीरूपलाल जी महाराज का जन्‍म विक्रम संवत 1738 (1681 ई.) वैशाख कृष्‍ण सप्‍तमी को हुआ था। आपके पिता का नाम गोस्‍वामी श्रीहरिलाल एवं माता का नाम श्रीकृष्‍णकुँवरि था। इनका बचपन महापुरुषोचित अनेकों चमत्‍कारों से पूर्ण था। ये ज्‍यों-ज्‍यों बड़े होते गये, इनके शील, सौजन्‍य, कोमल स्‍वभाव, दया, प्रेम आदि गुणों का क्रमश: स्‍वाभाविक प्रस्‍फुरण होने लगा।

कामवन आगमन

उन दिनों भारत मुग़ल शासन में था। यवनों के अत्‍याचार वृद्धि की सीमा पर थे। उनसे पीड़ित वृन्दावन के निवासी भक्‍तगण अपने-अपने इष्‍टदेव के अर्चा-विग्रहों को यत्र-तत्र छिपाये फिरते थे। बादशाह औरंगज़ेब से सताये जाने पर महाप्रभु श्रीहितहरिवंशचंद्र के इष्टदेव श्रीराधावल्लभलालजी महाराज, जो वंश परम्परा से श्रीहरिलालजी के भी इष्‍टदेव थे, उन दिनों कामवन के समीप अजानगढ़ में छिपे विराजते थे। एक बार श्रावण के महीने में यमुना में भारी बाढ़ आयी, जिससे अजानगढ़ डूबने लगा। अजानगढ़ के डूबने की खबर श्रीवन में अभी तक किसी को न थी। एक दिन बालक रूपलाल अकस्‍मात विलख-विलखकर रोने लगे। उनके शरीर में एक साथ प्रेम के अनेकों सात्त्विक भाव उदय हो आये। इनके पिताजी और अन्‍य भक्‍तों के पूछने पर और कुछ न कहकर इन्‍होंने अजानगढ़ (कामवन) चलकर श्रीराधावल्‍लभजी के दर्शन करने की इच्‍छा प्रकट की। पुत्रवत्‍सल पिता श्रीहरिलालजी इन्‍हें अजानगढ़ ले गये। बाढ़ की कठिनाइयों को झेलते हुए ये कामवन (अजानगढ़) पहुँचे।

राधावल्‍लभजी की दर्शन लालसा

श्रीराधावल्‍लभ जी का दर्शन करके ये ऐसे प्रेम-तन्‍मय हुए कि शरीर की सुधि ही जाती रही। आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह चली। बहुत देर के पश्‍चात जब इन्‍हें चेतना हुई, ये अपलक नेत्रों से अपने प्रियतम की रूप-माधुरी का पान करने लगे। इनकी दशा देखकर ऐसा प्रतीत होता था, मानो बहुत समय से बिछुड़े दो प्रेमियों का आज प्रथम मिलन है। प्रेम के आवेश में ये अपने आपको संभालने में असमर्थ हो गये और शुचि-अशुचि अवस्‍था का भी ध्‍यान भूलकर श्रीराधावल्‍लभलाल को अपने भुज-बन्‍धन में बांध लेने के लिये उनकी ओर लपके। ये शीघ्रता से निज मन्दिर की देहली को पार करना ही चाहते थे, तब तक इनके पिताजी ने इन्‍हें अपनी गोद में उठा लिया। अपने-आपको बन्‍धन में देखकर ये उसी भावावेश में जोर-जोर से चिल्‍लाने लगे- "मुझे छोड़ दो! मैं राधावल्‍लभ से भेंटूँगा, मैं उन्‍हें निरखूँगा। अरे, मैं उनके कोमल-कोमल चरणों का स्‍पर्श करूँगा, मुझे छोड़ दो। मुझे छोड़ दो।"

इनकी छटपटाहट और प्रेम की उतावली को देखकर पिताजी ने प्‍यार से पुचकाते हुए समझाया- "बेटा! श्रीजी से ऐसी अपावन दशा में थोड़े मिला जाता है। अभी तुमने स्‍नान नहीं किया है और फिर तुम्‍हारा संस्‍कार भी तो नहीं हुआ है। हमारे कुल की परम्‍परा के अनुसार कोई भी गोस्‍वामी बालक बिना द्विजाति-संस्‍कार और वैष्‍णवी दीक्षा के न तो श्रीजी के मन्दिर में प्रवेश कर सकता है और न उनका स्‍पर्श ही। और फिर तुम तो अभी केवल नौ वर्ष के छोटे से बालक हो, फिर यह सब कैसे हो सकता है।" पिताजी की बात सुनकर आप शीघ्रता से उनकी गोद से कूद पड़े और उसी आवेश में बोले- "अच्‍छा! लो, स्‍नान तो मैं अभी किये आता हूँ। रही संस्‍कारों की बात, उन्‍हें आप चाहे जब करिये, मैं तो प्रभु का दर्शन-स्‍पर्श करूँगा ही।" यों कहकर आप बड़ी तीव्र गति से यमुना की ओर दौड़े और भीषण बाढ़ में कूद गये। नौ वर्ष के बालक की ऐसी प्रेमासक्ति देखकर पिता का हृदय आनन्‍द से बांसों उछलने लगा। उन्‍होंने पुत्र की प्रेम-पिपासा को शान्‍त करने के लिये उन्‍हें स्‍नान कराया और स्‍वयं भी किया और शीघ्र ही संक्षिप्त रीति से निज-मंत्र का दान कर दिया।

बालक रूपलाल मंत्र श्रवण करते ही पुन: उसी प्रेमावेश में आ गये तथा उसी प्रेमोन्‍मादमयी दशा में उन्‍हें मन्दिर में प्रवेश कराया गया। अपने अनन्‍त प्राणाधिक प्रियतम श्रीराधावल्‍लभलाल जी के कोमल चरणों का स्‍पर्ष करते ही इनके शरीर में विद्युत का सा संचार हुआ तथा इनका शरीर दिव्‍य द्युति से चमक उठा। ये प्रेम-मुग्‍ध होकर अपने प्रियतम के चरणों से लिपट गये और लंबी-लंबी सुबकियां भरते हुए पावन प्रेमाश्रुओं से उनके चरणों का प्रक्षालन करने लगे। उनकी प्रेम-मुग्‍ध दशा देखकर पिता ने इनसे प्रभु के चरणों को छोड़ने की बात कही, पर ये छोड़ते ही न थे। तब स्‍वयमेव श्रीहरिलाल जी ने इन्‍हें पकड़कर दूर किया। चरणों से दूर कर दिये जाने पर ये दोनों हाथों की अंजुली बांधकर विरहिणी की भाँति फूट-फूटकर रोने लगे। बालक रूपलाल का रुदन सुनकर वहाँ उपस्थित सहस्‍त्रों नर-नारियों का हृदय भी भर आया। अन्‍त में बाबा श्रीकमलनयनाचार्य जी ने इन्‍हें समझाया और आशीष दिया कि- "बेटा तुम हमारे कुल के भूषण होओगे।" बाबा के वाक्‍य सुनकर लजा गये और शान्‍त होकर एक किनारे पर जा खड़े हुए। पश्‍चात प्रसादी चन्‍दन, फूलमाला, बीड़ी आदि देकर इन्‍हें डेरे पर भेज दिया गया।

चमत्कारिक प्रसंग

इस प्रकार कितने ही दिनों तक रूपलाल पिताजी के साथ कामवन में रहकर श्रीजी का दर्शन-सुख लेते रहे। पश्‍चात कामवन में बरसाना होते हुए श्रीवन आये। मार्ग में बरसाने की सांकरी खोर से होकर जब ये आ रहे थे, एक मतवाला हाथी इनकी पालकी की ओर आता दीखा, जिससे सारे अंगरक्षक और कहार पालकी छोड़कर भाग गये। इससे इनके पिताजी घबरा उठे, पर परिणाम हुआ कुछ और ही। मतवाले गजराज ने पालकी के पास आकर बालक रूपलाल के चरणों का अपनी सूंड़ से स्‍पर्श किया और वह चुपचाप एक ओर चला गया। क्‍यों न हो। जिन संतों के पुनीत हृदय में राग-रोष-रहित समता और स्‍नेह है, वहाँ ऐसे तमोगुणी स्‍वभाव वाले जीवों का झुक जाना, अपना स्‍वभव छोड़ देना, क्‍या आश्‍चर्य है। श्रीरसिकमुरारि जी ने तो मतवाले हाथी को शिष्‍य तक बना डाला था, जो पीछे महंत गोपालदासजी के नाम से प्रख्‍यात हुआ। इस घटना से इनके पिताजी खूब प्रभावित हुए और वे भलीभाँति समझने लगे कि यह बालक साधारण बालक नहीं, अवश्‍य कोई दिव्‍य महापुरुष है।

ठाकुरजी की सेवा

बालक रूपलाल के हृदय में श्रीठाकुरजी की सेवा का बड़ा चाव था। उत्‍तम आचार्य ब्राह्मण कुल तथा धन-धान्‍य सम्‍पन्‍न प्रतिष्ठित घर में उत्‍पन्‍न होकर भी आप स्‍वयं अपने हाथों श्रीप्रियाजी के रास-मण्‍डल की सोहनी (बुहारी) लगाया करते थे। यदि कोई इनके इस कार्य को छोटा बताकर इससे निवारण करने की बात कहता तो आप झट कह देते- "तो क्‍या गोस्‍वामी श्रीहितहरिवंशचन्‍द्र ने भवनांगणमार्जनी स्‍याम अर्थात ‘हे राधे ! मैं आपके भवन के आंगन की मार्जनी हो सकूँ?’ यह असत्‍य ही कह दिया है और स्‍वामी श्रीहरिदास जी ने भी तो कहा है- कुंजनि दीजै सोहनी। क्‍या यह भी व्‍यर्थ है?" इनके इन शब्‍दों से प्रस्‍फुटित होने वाली श्रद्धा, भक्ति और सेवा-निष्‍ठा लोगों को निरुत्‍तर ही नहीं करती वरन् सेवा-परायण बना देती थी। सेवा की इस लगन ने इनमें केवल ग्‍यारह वर्ष की ही अवस्‍था में एक विलक्षणता उत्‍पन्‍न कर दी थी। ये सेवा करते, चलते-फिरते, हर समय अपने सामने 'युगल सरकार' का दर्शन किया करते थे। विद्याध्‍ययन ओर विवाह-संस्‍कार के पश्‍चात लगभग बीस-इक्‍कीस वर्ष की अवस्‍था के उपरान्‍त आपने अपना सम्‍पूर्ण जीवन भक्ति-प्रचार और भ्रमण में व्‍यतीत किया।

यात्राएँ

प्रथम बार गुजरात प्रान्‍त की यात्रा में आपने श्रीरामकृष्‍ण मेहता के घर, जो परम वैष्‍णव थे, प्रीतिवश लगातार आठ मास तक विश्राम किया। इनके सत्‍संग से मेहता जी कृतकृत्‍य हो गये। उन्‍हें गोस्‍वामीजी की कृपा से युगल किशोर श्रीराधा-श्‍यामसुन्‍दर के दर्शन भी हुए। आपने ब्रजमण्डल की भी अनेकों यात्राएं की, जिनमें से एक बार गोविन्‍दकुण्‍ड (गोवर्धन गिरिराज) में निवास करते हुए आपने एक गिरिराज-शिला का लगातार छ: मास तक आराधन किया, जिससे उस शिला से युगल किशोर का प्राकट्य हुआ, जो अभी भी राधाकुण्‍ड में विराजमान है। वहाँ श्रीरूपलाल जी की बैठक भी है।

आपकी दूसरी यात्रा पूर्वीय भारत की हुई। इस समय जब आप जीवों को भगवन्‍मार्ग में लगाते हुए श्रीप्रयागराज पहुँचे, तब वहाँ एक महात्‍मा ने इन्‍हें सिद्धिप्रद नारिकेल-फल देते हुए कहा कि इसे खा लो, इससे आपमें अनेकों सिद्धियों का प्रकाश हो जायगा। गोस्‍वामी जी ने उस नारियल को लेकर गंगा-संगम में फेंक दिया और कहा- "महाराज! जिसे भगवान श्रीकृष्ण की चरण-कृपा और प्रीति की वांछना है, उसके लिये इन सिद्धियों का प्रलोभन व्‍यर्थ ही नहीं, बल्कि अहितकर भी है। मुझे कहीं नाटक-चेटक थोड़े ही दिखाना है, जो मैं आपका नारियल रखूँ।" इनके इस उत्‍तर से वे सिद्ध महात्‍मा लज्जित से हो गये। इस बहाने मानो आपने अपने भक्तों को सिद्धियों में न फँसकर अनन्‍य रूप से श्रीकृष्ण-भक्ति ही करने का उपदेश दिया।

इसके पश्‍चात आप काशी होते हुए पटना आये। पटना में रामदास वैष्‍णव का प्रेममय आग्रह और अपने प्रभु की आज्ञा मानकर आपने उनके घर में विराजमान युगल किशोर के श्रीविग्रह को लेना स्‍वीकार किया। जगन्‍नाथपुरी जाकर नीलाचलनाथ के दर्शन करके आप अत्‍यन्‍त आनन्दित हुए और प्रभु के महाप्रसाद की प्रत्‍यक्ष महिमा देखकर आपका हृदय प्रसन्‍नता से फूल उठा। पूर्वीय प्रान्‍तों की यात्रा चार वर्षों में पूर्ण करके जब आप वृन्दावन आ रहे थे, मार्ग में कुछ दिनों के लिये आगरा ठहरे। वहाँ आपने अपने शिष्य वैष्‍णव दयालदास की पुत्री विष्‍णीबाई की बीमारी दूर की। यह विष्‍णी गुरु-कृपा से आगे चलकर परम भक्त हुईं।

श्रीराधा का दर्शन

अस्‍तु, श्रीहितरूपलालजी गोस्‍वामी की इष्‍ट-निष्‍ठा वृन्‍दावनेश्‍वरी श्रीराधा के चरणों में थी, अत: वे एक बार उनका दर्शन करने बरसाना गये। वहाँ गोस्‍वामी जी के अनुराग और भाव से प्रसन्‍न होकर स्‍वामिनी वृषभानु-दुलारी श्रीराधा ने आपको प्रत्‍यक्ष दर्शन दिये। श्रीस्‍वामिनीजी का दर्शन करके आप मुदित मन से गा उठे-

"बरसानौं बर सिंधु भाव बहु लहरिनु सरसैं।
लीला चरित सुबारि भरयौ भावुक दृग दरसैं।
ललित रतन जा मध्‍य बास परिकर जु भानु कौ।
रसिक जौहरी लखत, तहां गम नहीं आन कौ।।
ससि तें प्रकास कोटिक जु सब राधा ससि जहं उदित है।
मंडल अखंड चित एकरस मोहन चकोर लखि मुदित है।।"

सच्चे रसिक संत

गोस्‍वामी श्रीहितरूपलाल जी महाराज 'राधावल्‍लभीय सम्‍प्रदाय' के केवल आचार्य ही नहीं वरन् एक सच्चे रसिक संत थे। इनका चरित्र ही इनकी इष्‍ट-निष्‍ठा, प्रीति, भक्ति, सेवा, लगन, नि:स्‍पृह भाव, दयालुता, लोकसेवा, निर्वैरता आदि का साक्षी है। इन्‍होंने अपने धर्म-पालन के लिये वृन्दावन और अपने इष्‍टाराध्‍य श्रीविग्रह श्रीराधावल्‍लभलाल जी का परित्‍याग करने में भी कोई हिचक नहीं की।

ग्रन्थ रचना

गोस्‍वामी जी भक्त तो पूरे थे ही, साथ-साथ विद्वान भी अच्‍छे थे। आपने अपने जीवन काल में अनेकों भक्ति ग्रन्‍थों की रचना की है, जिनमें अब तक कोई बीस ग्रन्‍थ उपलब्‍ध हुए हैं। उनमें से कुछ के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. अष्‍टयाम-सेवाप्रबन्‍ध
  2. मानसी सेवाप्रबन्‍ध
  3. आचार्य-गुरु-सिद्धान्‍त
  4. नित्‍य-विहार
  5. गूढ़-ध्‍यान
  6. पद सिद्धान्‍त
  7. राधास्‍तोत्र (गौतमी-तन्‍त्र के आधार पर)
  8. व्रज-भक्ति
  9. वाणी-विलास
  • वैष्‍णव रामदास जी युगल किशोर अभी भी गोस्‍वामी श्रीरूपलाल जी महाराज के वंशजों द्वारा बड़ी सरकार वृन्दावन में पूजित हो रहे हैं।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • [लेखक- चश्मा वाले बाबा]

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः