गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 63

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 2

शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो नेह किं वधः।।2।।

अर्थात्, हे वरद! हे सुरतनाथ! हम आपकी अशुल्क-दासिका हैं। शरद्कालीन जलाशय मध्यस्थित सर्वोत्कृष्ट सरसिज के कर्णिकान्तर निहित श्री के सौन्दर्य को भी चुरा लेने वाली अपनी दृष्टि से आपने हमें आहत किया है; क्या यह दृशावध, दृष्टि द्वारा वध हनन नहीं है?

भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र को सम्बोधित करती हुई गोपांगनाएँ ‘वरद’ तथा ‘सुनतनाथ’ जैसे सम्बन्धों का प्रयोग करती हैं। वरद अर्थात् सर्वप्रकार के अभीष्ट-दाता; प्राणी निरन्तर विभिन्न कामनाएँ करता रहता है परन्तु सर्वेश्वर सर्वज्ञ भगवान् की आराधना से ही अभीष्ट-सिद्धि सम्भव है अतः भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही ‘वरद’ वरदाता हैं।

शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गंधात्मक सम्पूर्ण सम्भोग ही सुरत है; सुरत के अधिपति ही ‘सुरतनाथ’ हैं; भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही सुरतनाथ हैं।

गोपांगनाएँ कह रही हैं हे वरद! हे सुरतनाथ! वरद के द्वारा सम्पूर्ण अभीष्टों की सिद्धि तथा सुरतनाथ द्वारा सम्पूर्ण सुरत की प्राप्ति होना ही उचित है परन्तु आप द्वारा तो हम अशुल्क-दासिकाओं का हनन ही हो रहा है। आपके लोकोत्तर कल्याण गुण-गणों एवं अद्भुत सौन्दर्य-माधुर्य पर मुग्ध होकर हम आपके हाथों बिना मूल्य ही बिक गयी हैं। साधारणतः दासिका क्रीता होती हैं; गोपांगनाएँ अपने को अक्रीता दासिकाएँ कह रही हैं; अशुल्क-दासिका का तात्पर्य है अधम-दासिकाः। जीव गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी के मतानुसार गोपांगनाएँ अपने प्रति अशुल्क-दासिका जैसे विशेषण प्रयोग द्वारा अपने दैन्य को ही अभिव्यक्त कर रही हैं।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
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