गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 537

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 19

यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद् व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः।।19।।

हे श्यामसुन्दर! तुम्हारे चरणारविन्द अतिशय कोमल हैं, अतः हम इनको अपने कठोर स्तनों पर धारण करने में संकोच का अनुभव करती हैं, आपके इन निरावरण चरणो में वृन्दाटवी के कुश-काशादि के गड़ने से व्यथा होती होगी, इस विचार से ही हम मुर्च्छा को प्राप्त हो रही हैं।

गोपांगनाएँ नित्य नवयौवना हैं, अनन्त सौन्दर्य-माधुर्ययुक्त हैं; इस नव-नवायमान यौवन के कारण उनके उरोज अत्यन्त कठोर हैं। वे कह रही हैं, ‘हे प्रियतम! आपके चरण-कमल अत्यन्त सुकोमल, विशिष्ट सौगन्ध, सौरस्य माधुर्यसंपन्न, दिव्य गुण-गणयुक्त, सुजात अम्बुरुह (कमल) से भी कोटि-कोटि गुणाधिक सुकोमल हैं अतः गढालिंगन की अत्यन्त उत्कट उत्कंठा रहते हुए भी हम आपके इन विशेषतः सुकोमल चरण-कमलों को अपने कठोर स्तनों पर धारण करने में भय खाती हैं हमारे स्तन विशेषतः कर्कश हैं और आपके चरण कमल विशेषतः सुकोमल हैं। हमारे कठोर स्तनों से आपके सुकोमल चरणों में आघात लग जाने के भय से हम अपने उत्कट अनुराग का, अपनी उत्कट अभिलाषा को, उत्कट कामोन्माद को भी समेट लेती हैं।

गोपांगनाओं का यह ‘तत्-सुख-सुखित्वभाव’ ही उनकी विशेषता है। पूर्व श्लोकों में बताया जा चुका है कि गोपांगनाओं का लोकोत्तर कामोन्माद भी लौकिक काम द्वारा प्रेरित न था। अनंग-प्रवेश के उपयुक्त समय से पूर्व ही गोप-बालिकाओं के तन-मन में सांग श्यामांग सन्निविष्ट हो चुके थे अतः अनंग-प्रवेश का अवसर ही असम्भव हो गया। ‘प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यगमत्प्रथाम्’ अर्थात् गोपांगनाओं का भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द विषयक विशुद्ध प्रेम ही काम शब्द से व्यपदिष्ट है। भगवान श्रीकृष्ण साक्षात मन्मथमन्मथ हैं- ‘सोऽकामयत बहु स्याम्’[1] जगत्-कारण, परमेश्वर में सृष्टि की कामना उद्बुद्ध हुई।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तै० उ० 2/6

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