गोपी गीत -करपात्री महाराजगोपी गीत 17श्रीहरिः रहिस संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्। हे प्रिय! तुम्हारी बातें हमारे हृदय में प्रेम-भाव को, एकान्त मिलन की आकांक्षा को प्रदीप्त कर देने वाली हुआ करती थीं; तुम बारम्बार हमसे-हास-परिहास किया करते थे और प्रेमभरी चितवन से हमारी ओर निहारते हुए मुस्कुरा देते थे। हम लोग तुम्हारे उस विशाल वक्षस्थल को जिस पर लक्ष्मी जी नित्य-निरन्तर निवास करती है, निहारा करतीं। अतः हमारी लालसा प्रतिक्षण वृद्धि को ही प्राप्त होती जा रही है और हमारा मन भी क्षण-प्रतिक्षण अधिकाधिक मोहित होता जा रहा है। गोपांगनाएँ अनुभव करती हैं कि मानों भगवान् श्रीकृष्ण उनसे कह रहे हैं, ‘गोपांगनाओं! तुम यह जानती हो कि हम कितव, कपटी, अद्रचचित्त, निर्दय-हृदय हैं। संसार में दोष-दर्शन कर तुम हमारे यहाँ आई हो; अब हमारे में भी दोषानुसंधान कर पूर्णतः विरक्त् हो जाओ, पूर्णवैराग्य का संपादन करो। ‘कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन्। संसार के नित्य-प्रिय पति-सुताद सब आर्ति को ही देने वाले हैं, विपद्जाल में ही डालने वाले है; यह जानकर ही तुम हमारी शरण आई हो अतः तुमको वैराग्य का अभ्यास तो है ही अब यहाँ भी दोष-दर्शन कर पूर्ण वैराग्य का सम्पादन करो। वे उत्तर देती हैं, ‘रहसि संविदं हृच्छयोदयं। हे प्रभों! आपसे वैराग्य सम्भव नहीं। ‘मुहुरस्पिृहा’ आपमें हमारी सपृहा तो उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। हजार-हजार दोषानुसंधान करने पर भी आपके स्वरूप में हमारी स्पृहा, उत्कट उत्कण्ठा बढ़ती ही जाती है अतः ‘मुह्यते मनः’ हमारा मन बारम्बार मोह को प्राप्त हो जाता है। |