गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 412

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 16

श्रीहरिः

पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानति विलड्ध्य तेऽन्त्यच्युतागताः।
गतिविदस्तवोदृगीतमोहिताः कितव योषितः कस्त्यजेन्निशि। ।।16।।

अर्थात, हे अच्युत! हम अपने पति-पुत्र एवं बन्धु-बान्धवों के आदेशों का उल्लंघन कर आपके वेणुगीत से मोहित होकर आपके पास आयी हॅूं। हे कितव! इस प्रकार रात्रि के समय में आयी हुई युवतियों को तुम्हारी सिवा और कौन उपेक्षा कर सकता है? कुछ गोपाग्ंनायें जो भगवान के मंगलमय मुखचन्द्रनिर्गत वेणु-रंध्रों में प्रविष्ट अधरामृत कर भगवद-दर्शन के लिये चलीं और बीच में ही कान्तादिकों द्वारा अवरूद्ध कर ली गयीं, कहतें है-

‘अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः।
कृष्णं तद्भावनायुक्ता दध्युमींलितलोचनाः।।[1]

अर्थात, कान्तादिकों द्वारा विवश किए जाने पर वे गोपाग्ंनायें अपने-अपने घरों में कृष्ण-ध्यान में रत हो पूर्वभ्यास के कारण तन्मय हो गई। कुछ गोपांगनायें साधक-रूपा है। जो दण्डक-वनवासों महर्षियों के रूप में राघवेन्द्र रामचन्द्र भगवान् के दर्शन प्राप्त कर चुके हैं। महर्षि-जनों ने भगवान् रामचन्द्र के अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य-सौरस्य-सौगन्धय-सुधा-जलनिधि, मंगलमय विग्रह के संस्पर्श की इच्छा प्रकट की; श्री रामचन्द्र ने उनको अपने कृष्णावतार में स्व-स्वरूप-संस्पर्श का वरदान दिया; वे दण्डकारण्य-निवासी महर्षि-गण ही भगवत् संस्पर्श हेतु’ ध्यान, धारणा,समाधि, जप–तप करते हुए गोपकन्याभाव को प्राप्त हुए। इन गोपकन्याओं ने कात्यायनी-अर्चन व्रत किया फलतः उनमें भगवतः सम्मिलन को उत्कट उत्कठा उत्तरोतर अभिवृद्धिंगत हुई और उनके देह, इंद्रिय मन, बुद्धि, अहंकार की प्राकृतता बाधित हुई तथा भगवत्-सम्मिलनयोग्य रसात्मकता प्रस्फुटित हुई। सिद्धान्त है, ’देवो भूत्वा यजेद् देवान् नादेवो देवमर्चयेत्, देव होकर ही देव पूजा करें; अदेव देव की अर्चना न करें। भगवत्-स्वरूपापन्न होकर ही भगवान की आराधना सम्भ्व हो सकती है; भगवत् स्वरूप भिन्न रहें तो पूजा नहीं बनती क्योंकि

साजात्य में ही ग्राहा्रःग्राहक-भाव सम्भव है। जैसे, प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय को स्वभावतःग्रहण करती है परन्तु विषयान्तर का ग्रहण नहीं कर पाती वैसे ही भौतिक इन्द्रियों से परात्पर पर ब्रह्मा का ग्रहण भी सम्भव नहीं होता। परब्रह्म को ग्रहण करने के लिए परब्रह्मात्मक होना अनिवार्य है; एतावता,इन्द्रिय,मन,बुद्धि,अंहकार की लौकिकता, प्राकृतता, भौतिकता का बाध और साथ हो अलौकिक अप्राकृत अभौतिक, रसात्मक, ब्रह्मात्कता का प्रस्फुटन होने पर ही ब्रह्म-दर्शन सम्भव है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमदभा० 10/29/9

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
1. भूमिका 1
2. प्रवेशिका 21
3. गोपी गीत 1 23
4 गोपी गीत 2 63
5. गोपी गीत 3 125
6. गोपी गीत 4 154
7. गोपी गीत 5 185
8. गोपी गीत 6 213
9. गोपी गीत 7 256
10. गोपी गीत 8 271
11. गोपी गीत 9 292
12. गोपी गीत 10 304
13. गोपी गीत 11 319
14. गोपी गीत 12 336
15. गोपी गीत 13 364
16. गोपी गीत 14 389
17. गोपी गीत 15 391
18. गोपी गीत 16 412
19. गोपी गीत 17 454
20. गोपी गीत 18 499
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