गोपी गीत -करपात्री महाराज पृ. 271

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गोपी गीत -करपात्री महाराज

गोपी गीत 8

मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती
रधरसीधुना प्याययस्व नः।।8।।

अर्थात हे पुष्करेक्षण! हे कमलनयन सुन्दर शब्द एवं वाक्य-विन्यासयुक्त आप की मधुरवाणी बड़ी मधुर है; बुधजन भी इससे मोहित हो जाते है। हे वीर! तुम्हारी इस वाणी से मोहित हो हम तुम्हारी क्रीतदासी बन गई हैं अतः अब आप स्वमुखचन्द्र के अधरामृत से हमारा आप्यायन करें, हम दासियों को तृप्त करें। ‘मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया’ गोपांगनाएँ कह रही हैं, हे पुष्करेक्षण! आपकी सुन्दर शब्द विन्यास युक्त मधुर वाणी के कारण हम मोह को प्राप्त हो रही हैं। मरण के पूर्वकाल में होने वाला मोह अथवा मूर्धा ही अर्द्ध अन्तावस्था है ‘मुग्धेऽर्द्ध सम्पत्तिः परिशेषात्’[1] उत्तर मीमांसाकार कहते हैं मुग्धावस्था में जीवात्मा की परमात्मा के साथ अर्द्ध सम्पत्ति होती है। आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि आसवानुरागी, आसवोपभोगी को आसव की अप्राप्ति में जो मूर्च्छा होती है, उसका उपचार भी आसवोपभोग ही है। गोपांगनाएँ भी कह रही हैं कि हे कमलनयन! आपकी मधुर वाणी के कारण ही हम मुग्धावस्था को प्राप्त हो रही हैं। ‘भावतीभ्योन्यत् न किमपि में प्रियतम’ आप लोगों से भिन्न अन्य कोई मुझको प्रियतर नहीं है, ‘तुम ही मेरी सर्वाधिक प्रेयसी हो’ आदि आप की मधुरवाणी के कारण ही हम व्यामोह को प्राप्त हो रही हैं; हम मूर्च्छा की प्रत्यक्ष मूर्ति बनी हुई हैं; हमारी दशा को देखा! हे वीर! हमारी रक्षा एवं संवर्द्धन करो।

भगवान श्यामसुन्दर मदनमोहन की वाणी ‘मधुरा’ है। ‘मधु मद्यं तदिव राति इति मधुरा’ मद की भाँति उन्मत्त बना देने वाली अथवा ‘मधु, अमृतं तद्धत् मिष्टं’ अमृत की तरह मधुर अथवा ‘मधुराति ददाति इति मधुरा’ मधु देने वाली है अतः मधुरा है। भगवद्-वाणी ही मोह-निवृत्ति का साधन है। माया का रूपान्तर ही मोह है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
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2. प्रवेशिका 21
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