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गोपी गीत -करपात्री महाराज
गोपी गीत 7
‘प्रणतदेहिनां पापकर्शनं
तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम्।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं
कृणु कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम्’ ।।7।।
अर्थात, हे कान्त! आपके चरणारविन्द शरणगतार्ति का अशेष उन्मूलन करने वाले हैं; वे समस्त सौन्दर्य एवं माधुर्य के कोष तथा श्रीदेवी के निकेतन हैं। इन निरावरण चरणारविन्दों से आप हमारे गाय-बछड़ों को चराते हुए वृन्दाटवी में भ्रमण करते हैं; हमारी रक्षा हेतु आपने अपने चरणारविन्दों को कालिय नाग के फणों पर भी विराजमान किया; हमारा हृदय आपके विप्रयोग-जन्य ताप से अत्यन्त सन्तप्त है; अतः हमारी आर्ति हनन हेतु आप अपने पदाम्बुजों को हमारे वक्षस्थल पर धारण करें।
‘शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम्’ तथा ‘जलरूहाननं चारुदर्शय’ इत्यादि प्रार्थनाओं के बाद गोपांगनाएँ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र श्यामसुन्दर से प्रार्थना कर रही हैं, ‘हे कान्त! आपके पदाम्बुज मंजुल, शीतल, मधुर सुरभि-युक्त हैं, तापापनोदक एवं आल्हादक हैं; आप अपने इन चरणारविन्दों को हमारे वक्ष स्थल पर धारण कर हमारी हृच्छायाग्नि का उपशमन करें।
सर्वांग में हृदय ही मुख्य है। हृदय की रक्षा से ही सम्पूर्ण शरीर की रक्षा हो जाती हैै; अतः सावधानी पूर्वक हृदय की ही रक्षा होनी चाहिए। जैसे गृह के एक देश में रहकर दीपक समस्त भवन को प्रकाशित करता है, वैसे ही, शरीर के एक देश हृदय में ही अन्तरात्मा की अभिव्यक्ति होती है परन्तु समस्त शरीर का प्रकाश और कार्य उसी से होता है। भुवनात्मा महाविराट् का हृदय है भारतवर्ष; यही कारण है कि भारतवर्ष में ही परात्पर परब्रह्म परमेश्वर प्रभु बारंबार अवतरित होते हैं। भारतवर्ष समस्त भूमण्डल की नाभि है। चौदह भुवन के मध्य का भुवन है भूर्लोक; भूर्लोक में मेदिनी सप्तद्वीपा है; इन सप्तद्वीपों के मध्य में नववर्ष है; इन नव वर्षों में एक वर्ष भारतवर्ष है। भारतवर्ष ही भुवनात्मा महाविराट् का हृदय है।
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