गोपी गीत -करपात्री महाराजश्रीगोपी-गीत‘श्रीमद्भागवत महापुराण’ के दशम स्कन्ध का इकतीसवाँ अध्याय ‘गोपी-गीत’ नाम से प्रसिद्ध है। यह अत्यन्त भावपूर्ण गीत है; जितना ही अधिकाधिक इसके पठन-पाठन, श्रवण-मनन एवं अर्थानुसन्धान में प्रवृत्त हुआ जाय उतना ही इसके लोकोत्तर दिव्य रस की अधिकाधिक उपलब्धि होती है। श्री सनातन गोस्वामी कहते हैं कि गोपाङ्गना-जनों के गीत का अर्थ एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण परमात्मा ही जान सकते हैं। ‘कृष्णैकगम्यो वागर्थः’ गोपाङ्गनाओं का यह वागर्थ एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण द्वारा ही गम्य है। जिन रहस्यात्मक वाक्यों का अर्थ केवल अपने रहस्यज्ञ को ही जताना अभीष्ट हो उसको इतर जन भी जानने का प्रयास करें यह सर्वथा अनुचित है एतावता गोपाङ्गनाओं के वागर्थ का वर्णन करना भी एक प्रकार से उनके प्रति अपराध ही है। हमारे इस अपराध को जानते हुए भी वे देवियाँ, व्रजसीमन्तिनी-जन हम पर अनुग्रह करें। श्री गोपाङ्गना-जनों के अनुग्रह से श्री श्रीधर स्वामी ने इस गीत का अभिप्राय समझा। गौड़-सम्प्रदाय के सभी आचार्य अद्वेतवाद एवं मायावाद के सम्बन्ध में श्री श्रीधर स्वामी से कुछ विप्रतिपत्ति रखते हुए भी भक्ति-रस के सम्बन्ध में उनका अत्यन्त सम्मान करते हैं। ‘पीतश्रीगोपिकागीतसुधासारमहात्मानाम् श्रीधरस्वामिनां किन्चिदुच्छिष्टमुपचीयते’ अर्थात् महात्मा एवं महापुरुष श्री श्रीधर स्वामी ने गोपिका-गीत-सुधा-सार का पान किया; उनके उच्छिष्ट रस का हम संचयन करते हैं। आचार्यगण का कथन है कि गोपाङ्गना-जनों ने इस अभिलाषा से कि जैसे हम लोग आनन्दकन्द, परमानन्द, व्रजचन्द्र, श्रीकृष्ण के वेणु-निनाद से मंत्र-मुग्ध हो उनके सन्निधान में व्रज तक खींची चली आयी हैं वैसे ही भगवान श्रीकृष्णचन्द्र भी हमारे इस गीत से आकृष्ट होकर हमको दर्शन देंगे, अपना गीत प्रारम्भ किया। ‘गोपी-गीत’ के अन्त में 32वें अध्याय के प्रारम्भ में स्पष्टतः ही कहा गया है- |