गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
श्रीमद्भगवद्गीता : अष्टादश अध्याय
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: । (78) मेरा मत है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण है और जहाँ धनुर्धर अर्जुन है वही श्री, विजय, शाश्वत ऐवर्श्य और नीति है। तिलक के अनुसार-[सिद्धांत का सार यह है कि जहाँ युक्ति और शक्ति दोनों एकत्रित होती हैं, वहाँ निश्चय ही ऋद्धि-सिद्धि निवास करती है; कोरी शक्ति से अथवा केवल युक्ति से काम नहीं चलता। जब जरासन्ध का वध करने के लिये मंत्रणा हो रही थी, तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा है कि “अन्धं बलं जडं प्राहुः प्रणेतव्यं विचक्षणौः’’[1]- बल अन्धा और जड़ है, बुद्धिमानों को चाहिये कि उसे मार्ग दिखलायें; तथा श्रीकृष्ण ने भी यह कह कर कि “मयि नीतिर्बलं भीमे’’[2]- मुझमें नीति है और भीमसेन के शरीर मे बल है- भीमसेन को साथ ले उसके द्वारा जरासन्ध का वध युक्ति से कराया है। केवल नीति बतलाने वाले को आधा चतुर समझना चाहिये। अर्थात योगेश्वर यानी योग या युक्ति के ईश्वर और धनुर्धर अर्थात योद्धा, ये दोनों विशेषण इस श्लोक मे हेतुपूर्वक दिये गये हैं।] इस प्रकार श्रीभगवान के गाये हुए अर्थात कहे हुए उपनिषद में, ब्रह्मविद्यान्तर्गत योग- अर्थात कर्मयोग-शास्त्रविषयक, श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में, मोक्षसंन्यास योग नामक अठारहवां अध्याय समाप्त हुआ। [ ध्यान रहे कि मोक्ष-संन्यास-योग शब्द में संन्यास शब्द का अर्थ’ काम्य कर्मों का संन्यास है, जैसा कि इस अध्याय के आरम्भ में कहा गया है; चतुर्थ आश्रमरूपी संन्यास यहाँ विवक्षित नहीं है। इस अध्याय में प्रतिपादन किया गया है कि स्वकर्म को न छोड़ कर, उसे परमेश्वर में मन से संन्यास अर्थात समर्पित कर देने से मोक्ष प्राप्त हो जाता है, अतएव इस अध्याय का मोक्ष-संन्यास-योग नाम रखा गया है।] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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