गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौथा प्रकरण
आधिभौतिक सुखवाद
दुःखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् ।[1][2] मनु आदि शास्त्रकारों ने “अहिंसा सत्यमस्तेयं’’ इत्यादि जो नियम बनाये हैं उनका कारण क्या है? वे नित्य हैं कि अनित्य, उनकी व्यप्ति कितनी है, उनका मूलतत्त्व क्या है, यदि इनमें से कोई दो परस्पर-विरोधी धर्म एक ही समय में आ पड़ें तो किस मार्ग को स्वीकार करना चाहिये, इत्यादि प्रश्नों का निर्णय ऐसी सामान्य युक्तियां से नहीं हो सकता जो “महाजनों येन गतः स पंथाः’’ या “अति सर्वत्र वर्जयेत्’’ आदि वचनों से सूचित होती है। इसलिये अब यह देखना चाहिये, कि इन प्रश्नों का उचित निर्णय कैसे हो और श्रेयस्कर मार्ग के निश्चित करने के लिये निभ्रांत युक्ति क्या है; अर्थात यह जानना चाहिये कि परस्पर-विरूद्व धर्मों की लघुता और गुरुता- न्यूनाधिक महता किस दृष्टि से निश्चित की जावे? अन्य शास्त्रीय प्रतिपादनों के अनुसार कर्म- अकर्म- विवेचन संबंधी प्रश्नों की भी चर्चा करने के तीन मार्ग हैं जैसे आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक। इनके भेदों का वर्णन पिछले प्रकरण में कर चुके हैं। हमारे शास्त्रकारों के मतानुसार आध्यात्मिक मार्ग ही इन सब मार्गों में श्रेष्ठ है। परन्तु अध्यात्ममार्ग का महत्त्व पूर्ण रीति से ध्यान में जांचने के लिये दूसरे दो मार्गों का भी विचार करना आवश्यक है, इसलिये पहले इस प्रकरण में कर्म-अकर्म-परीक्षा के आधिभौतिक मूलतत्त्वों की चर्चा की गई है। जिन आधिभौतिक शास्त्रों की आज कल बहुत उन्नति हुई है उनमें व्यक्त पदार्थो के बाहय और दृष्य गुणों ही का विचार विषेषता से किया गया है इसलिये जिन लोगों ने आधिभौतिक शास्त्रों के अध्ययन ही में अपनी उम्र बिता दी है और जिनको इस शास्त्र की विचारपद्धति का अभिमान है, उन्हें बाह्य परिणामों के ही विचार करने की आदत सी पड़ जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी तत्त्वज्ञानदृष्टि थोड़ी बहुत संकुचित हो जाती है और किसी भी बात का विचार करते समय वे लोग आध्यात्मिक, पारलौकिक, अव्यक्त या अदृष्य कारणों को विशेष महत्त्व नहीं देते। परन्तु, यद्यपि वे लोग उक्त कारण से आध्यात्मिक और पारलौकिक दृष्टि को छोड़ दें तथापि उन्हें यह मानना पड़ेगा कि मनुष्यों के सांसारिक व्यवहारों को सरलतापूर्वक चलाने और लोकसंग्रह करने के लिये नीति- नियमों की अत्यंत आवश्यकता है। इसीलिये हम देखते हैं कि उन पंडितों को भी कर्मयोगशास्त्र बहुत महत्त्व का मालूम होता है कि जो लोग पारलौकिक विषयों पर अनास्था रखते हैं या जिन लोगों का अव्यक्त अध्यात्मज्ञान में अर्थात परमेश्वर में भी विश्वास नहीं है। ऐसे ही पंडितों ने, पश्चिमी देशो में, इस बात की बहुत चर्चा की है- और यह चर्चा अब तक जारी है- कि केवल आधिभौतिक शास्त्र की रीति से अर्थात केवल सांसारिक दृश्य युक्तिवाद से ही कर्म-अकर्म-शास्त्र की उपपत्ति दिखलाई जा सकती है या नहीं। इस चर्चा से उन लोगों न यह निश्चय किया है कि, नीतिशास्त्र का विवेचन करने में अध्यात्मशास्त्र की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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