गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
चौदहवां प्रकरण
गीताध्याय-संगति।
अब तक किये गये विवेचन से देख पड़ेगा कि भगवद्गीता में-भगवान् के द्वारा गाये गये उपनिषद में-यह प्रतिपादन किया गया है, कि कर्मों को करते हुए ही अध्यात्म-विचार से या भक्ति से सर्वात्मैक्यरूप साम्यबुद्धि को पूर्णतया प्राप्त कर लेना, और उसे प्राप्त कर लेने पर भी संन्यास लेने की झंझट में न पड़ संसार में शास्त्रत: प्राप्त सब कर्मों को केवल अपना कर्तव्य समझ कर करते रहना ही, इस संसार में मनुष्य का परमपुरुषार्थ अथवा जीवन व्यतीत करने का उत्तम मार्ग है। परन्तु जिस क्रम से हमने इस ग्रन्थ में उक्त अर्थ का वर्णन किया है, उसकी अपेक्षा गीता-ग्रन्थ का क्रम भिन्न है, इसलिये अब यह भी देखना चाहिये कि भगवद्गीता में इस विषय का वर्णन किस प्रकार किया गया है। किसी भी विषय का निरूपण दो रीतियों से किया जाता है; एक शास्त्रीय और दूसरी पौराणिक शास्त्रीय पद्धति वह है कि जिसके द्वारा तर्कशास्त्रानुसार साधक-बाधक प्रमाणों को क्रम सहित उपस्थित करके यह दिखला दिया जाता है, कि सब लोगों की समझ में सहज ही आ सकनेवाली बातों से किसी प्रतिपाद्य विषय के मूलतत्त्व किस प्रकार निष्पन्न होते हैं। भूमितिशास्त्र इस पद्वति का एक अच्छा उदाहरण है; और न्यायसूत्र या वेदान्तसूत्र का उपपादन भी इसी वर्ग का है। इसी लिये भगवद्गीता में जहाँ ब्रह्मसूत्र यानी वेदान्तसूत्र का उल्लेख किया गया है, वहाँ यह भी वर्णन है कि उसका विषय हेतुयुक्त और निश्चयात्मक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है-‘’ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:’’[4]। परन्तु, भगवद्गीता का निरूपण सशास्त्र भले हो, तथापि वह इस शास्त्रीय पद्वति से नहीं किया गया है। भगवद्गीता में जो विषय है उसका वर्णन, अर्जुन और श्रीकृष्ण के सम्वादरूप में, अत्यन्त मनोरंजक और सुलभ रीति से किया गया है। इसीलिये प्रत्येक अध्याय के अन्त में ‘’भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे‘’ कहकर, गीता-निरूपण के स्वरूप के द्योतक ‘’श्रीकृष्णार्जुनसम्वादे‘’ इन शब्दों का उपयोग किया गया है। इस निरूपण में और ‘शास्त्रीय’ निरूपण में जो भेद है, उसको स्पष्टता से बतलाने के लिये हमने सम्वादात्मक निरूपण को ही ‘पौराणिक’ नाम दिया है। सात सौ श्लोकों के इस सम्वादात्मक अथवा पौराणिक निरूपण में ‘धर्म’ जैसे व्यापक शब्द में शामिल होने वाले सभी विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन कभी हो ही नहीं सकता। परन्तु आश्चर्य की बात है, कि गीता में जो अनेक विषय उपलब्ध होते हैं, उनका ही संग्रह ( संक्षेप में ही क्यों न हो ) अविरोध से कैसे किया जा सका! इस बात से गीताकार की अलौकिक शक्ति व्यक्त होती है; और अनुगीता के आरम्भ में जो यह कहा गया है, कि गीता का उपदेश ‘अत्यन्त योगयुक्त चित्त से बतलाया गया है , ‘इसकी सत्यता की प्रतीति भी हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नारायण ऋषि ने धर्म को प्रवृत्तिप्रधान बतलाया है।‘’ नर और नारायण नामक ऋषियों में से ही ये नारायण ऋषि हैं। पहले बतला चुके हैं कि इन्हीं दोनों के अवतार श्रीकृष्ण और अर्जुन थे। इसी प्रकार महाभारत का वह वचन भी पहले उदधृत किया गया है जिससे यह मालूम होता है कि गीता में नारायणीय धर्म का ही प्रतिपादन किया गया है
- ↑ गी. र. 56
- ↑ महाभारत, शांति. 217. 2।
- ↑ गी. 13.4
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