गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
ग्यारहवाँ प्रकरण
संन्यास और कर्मयोग
पिछले प्रकरण में इस बात का विचार किया गया है, कि अनादि कर्म के चक्करों से छूटने के लिये प्राणीमात्र में एकत्व से रहनेवाले परब्रह्म का अनुभवात्मक ज्ञान होना ही एकमात्र उपाय है; और यह विचार भी किया गया है कि इस अमृत ब्रह्म का ज्ञान सम्पादन करने के लिये मनुष्य स्वतंत्र है या नहीं, एवं इस ज्ञान की प्राप्ति के लिये माया सृष्टि के अनित्य व्यवहार अथवा कर्म वह किस प्रकार करे। अन्त में यह सिद्ध किया है, कि बन्धन कुछ कर्म का धर्म या गुण नहीं है किन्तु मन का है, इसलिये व्यवहारिक कर्मों के फल के बारे में जो अपनी आसक्ति होती है उसे इंद्रिय-निग्रह से धीरे धीरे घटा कर, शुद्ध अर्थात निष्काम बुद्धि से कर्म करते रहने पर, कुछ समय के बाद साम्यबुद्धि आत्मज्ञान देहेन्द्रियों में समा जाता है और अन्त में पूर्ण सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार इस बात का निर्णय हो गया, कि मोक्षरूपी परम साध्य अथवा आध्यात्मिक पूर्णावस्था की प्राप्ति के लिये किस साधन या उपाय का अवलम्ब करना चाहिये। जब इस प्रकार के बर्ताव से, अर्थात यथाशक्ति और यथाधिकार निष्काम कर्म करते रहने से, कर्म का बन्धन छूट जाय तथा चितशुद्धि द्वारा अन्त में पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो जाय, तब यह महत्व का प्रश्न उपस्थित होता है, कि अब आगे अर्थात सिद्धावस्था में ज्ञानी या स्थितिप्रद पुरुष कर्म ही रहता रहे, अथवा प्राप्य वस्तु को पाकर कृतकृत्य हो, माया-सृष्टि के सब व्यवहारों को निरर्थक और ज्ञानविरुद्ध समझ कर, इस संसार का त्याग कर देंॽ इस कारण यह है कि, सब कर्मों को छोड़ देना (कर्मसंन्यास), या उन्हें निष्काम बुद्धि से मृत्यु पर्यंत करते जाना (कर्मयोग), ये दोनों पक्ष तर्क दृष्टि से इस स्थान पर सम्भव होते हैं। और, इनमें से जो पक्ष श्रेष्ठ ठहरे उसी की और ध्यान दे पहले से ( अर्थात साध्नावस्था से ही ) बर्ताव करना सुविधाजनक होगा, इसलिये उक्त दोनों पक्षों के तारतम्य का विचार किये बिना कर्म और अकर्म का कोई भी आध्यात्मिक विवेचन पूरा नहीं हो सकता। अर्जुन से सिर्फ यह कह देने से काम नहीं चल सकता था, कि पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त हो जाने पर कर्मों का करना और न करना एक सा है[2]; क्योंकि समस्त व्यवहारों में कर्म की अपेक्षा बुद्धि ही की श्रेष्ठता होने के कारण, ज्ञान से जिसकी बुद्धि समस्त भूतों में सम हो गई है, उसे किसी भी कर्म के शुभाशुभत्व का लेप नहीं लगता[3]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ “संन्यास और कर्मयोग दोनो नि:श्रेयसकर अर्थात मोक्षदायक है; परन्तु इन दोनों में भी कर्मसंन्यास की अपेक्षा कर्मयोग ही विशेष है। दूसरे चरण के ‘कर्मसंन्यास’ पद से प्रगट होता है, कि पहले चरण में ‘संन्यास’ शब्द का क्या अर्थ करना चाहिये। गणेशगीता के चौथे अध्याय के आरंभ में गीता के यही प्रश्न्नोतर लिये गये हैं। वहाँ यह अनेक थोडे़ शब्दभेद से इस प्रकार आया है–“क्रियायोगो बियोगश्चाप्युभौ मोक्षस्य साधने। तबोर्मध्ये क्रियायोगस्सयागातस्य विशिष्यते।”
- ↑ गी.3.18
- ↑ गी. 4. 20, 21
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