गीता रहस्य -तिलक पृ. 26

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दूसरा प्रकरण

किं कर्म किमकर्मेति कवयोअप्यत्र मोहताः ।[1] [2]

भगवद्गीता के आरम्भ में, परस्पर-विरुद्ध दो धर्मों की उलझन में फंस जाने के कारण अर्जुन जिस तरह कर्तव्यमूढ़ हो गया था और उस पर जो मौका आ पड़ा था वह कुछ अपूर्व नहीं है। उन असमर्थ और अपना ही पेट पालने वाले लोगों की बात ही भिन्न है जो संन्यास लेकर और संसार को छोड़ कर वन में चले जाते हैं, अथवा जो कमज़ोरी के कारण जगत के अनेक अन्यायों को चुपचाप सह लिया करते हैं। परन्तु समाज में रह कर ही जिन महान तथा कार्यकर्ता पुरुषों को अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन धर्म तथा नीतिपूर्वक करना पड़ता है, उन्हीं पर ऐसे मौके अनेक बार आया करते हैं। युद्ध के आरम्भ ही में अर्जुन को कर्तव्य-जिज्ञासा और मोह हुआ। ऐसा मोह युधिष्ठिर को, युद्ध में मरे हुए अपने रिश्तेदारों का श्राद्ध करते समय हुआ था। उसके इस मोह को दूर करने के लिये 'शांतिपर्व' कहा गया हैं।

कर्माकर्म-संशय के ऐसे अनेक प्रसंग ढूंढ कर अथवा कल्पित करके उन पर बड़े बड़े कवियों ने सुरस काव्य और उत्तम नाटक लिखे हैं। उदाहरणार्थ, सुप्रसिद्ध अंग्रेज नाटक कार शेक्सपीयर का हैमलेट नाटक लीजिये। डेन्मार्क देश के प्राचीन राजपुत्र हैमलेट के चाचा ने, राज्यकर्ता अपने भाई- हैमलेट के बाप को मार डाला; हैमलेट की माता को अपनी स्त्री बना लिया और राजगदी भी छीन ली। तब उस राजकुमार के मन में यह झगड़ा पैदा हुआ, कि ऐसे पापी चाचा का वध करके पुत्र धर्म के अनुसार अपने पिता के ऋण से मुक्त हो जाऊ; अथवा अपने सगे चाचा, अपनी माता के पति और गदी पर बैठे हुए राजा पर दया करूं इस मोह मे पड़ जाने के कारण कोमल अंतःकरण के हैमलेट की कैसी दशा हुई; श्रीकृष्ण के समान कोई मार्ग-दर्शक और हितकर्ता न होने के कारण वह कैसे पागल हो गया और अंत में 'जियें या मरें इसी बात की चिन्ता करते करते उसका अंत कैसे हो गया, इत्यादि बातों का चित्र इस नाटक में बहुत अच्छी तरह से दिखाया गया हैं।

'कोरियोलेनस' नाम के दूसरे नाटक में भी इसी तरह और प्रसंग का वर्णन शेक्सपीयर ने किया है। रोम नगर में कोरियोलेनस नाम का एक शूर सरदार था। नगरवासियों ने उसको शहर से निकाल दिया। तब वह रोमन लोगों के शत्रुओं में जा मिला और उसने प्रतिज्ञा की कि मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ूंगा। कुछ समय के बाद इन शत्रुओं की सहायता से उसने रोमन लोगों पर हमला किया और वह अपनी सेना लेकर रोम शहर के दरवाजे के पास आ पहुँचा। उस समय रोम 'शहर की स्त्रियों ने कोरियोलेनस की स्त्री और माता को सामने करके, मातृभूमि के संबंध में, उसको उपदेश किया। अंत में उसको, रोम के शत्रुओं को दिये हुए वचन का भंग करना पड़ा। कर्तव्य-अकर्तव्य के मोह में फस जाने के ऐसे और भी कई उदाहरण दुनिया के प्राचीन और आधुनिक इतिहास में पाये जाते हैं। परन्तु हम लोगों को इतनी दूर जाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पण्डितों को भी इस विषय में मोह हो जाया करता हैं, कि कर्म कौन सा हैं और अकर्म कौन सा हैं। इस स्थान पर अकर्म शब्द को 'कर्म के अभाव' और 'बूरे कर्म' दोनों अर्थों में यथा सम्भव लेना चाहिये। मूल श्लोक पर हमारी टीका देखो।
  2. गीता 4.16।

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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