गीता रहस्य -तिलक पृ. 255

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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दसवाँ प्रकरण

महाभारत का कथन है कि:-

येषां ये यानि कर्माणि प्राक्‌स्रष्टायां प्रतिपेदिरे ।
तान्येव प्रतिपद्यंते सृज्यमाना: पुन: पुन: ॥

अर्थात “पूर्व की सृष्टि में प्रत्येक प्राणी ने जो कर्म किये होगें, ठीक वे ही कर्म उसे (चाहे उसकी इच्छा हो या न हो) फिर फिर यथापूर्व प्राप्त होते रहते हैं”[1]गीता[2]) में कहा है कि “गहना कर्मणो गति:”– कर्म की गति कठिन है; इतना ही नहीं किंतु कर्म की पकड़ भी बड़ी कठिन है। कर्म किसी से भी नहीं छूट सकता। वायु कर्म से ही चलती है; सूर्य-चन्द्रादिक कर्म से ही घूमा करते हैं; और ब्रह्मा, विष्णु,[3] महादेव आदि सगुण देवता भी कर्मों में ही बँधे हुए हैं। इन्द्र आदिकों का क्या पूछना है! सगुण का अर्थ है नाम- रूपात्मक और नाम- रूपात्मक का अर्थ है कर्म या कर्म का परिणाम। जबकि यही बतलाया नहीं जा सकता कि मायात्मक कर्म आरम्भ में कैसे उत्पन्न हुआ, तब यह कैसे बतलाया जावे कि तदंगभूत मनुष्य इस कर्म-चक्र में पहले-पहल कैसे फँस गया।परंतु किसी भी रीति से क्यों न हो, जब वह एक बार कर्म-बन्धन में पड़ चुका, तब फिर आगे चल कर उसकी एक नाम रूपात्मक देह का नाश होने पर कर्म के परिणाम के कारण उसे इस दृष्टि में भिन्न भिन्न रूपों का मिलना कभी नहीं छूटता; क्योंकि आधुनिक आधिभौतिक शास्त्रकारों ने भी अब यह निश्चित किया है

[4]कि कर्म-शक्ति का कभी भी नाश नहीं होता; किंतु जो शक्ति आज किसी एक नाम-रूप से देख पड़ती है, वही शक्ति उस नाम-रूप के नाश होने पर दूसरे नाम-रूप से प्रगट हो जाती है। और जबकि किसी एक नाम-रूप के नाश होने पर उसको भिन्न भिन्न नाम-रूप प्राप्त हुआ ही करते हैं, तब यह भी नहीं माना जा सकता कि ये भिन्न भिन्न नाम-रूप निर्जीव ही होंगे अथवा ये भिन्न प्रकार के हो ही नहीं सकते। अध्यात्म-दृष्टि से इस नाम-रूपात्मक परम्परा को ही जन्म-मरण का चक्र या संसार कहते हैं; और इन नाम-रूपों की आधारभूत शक्ति को समाष्टि-रूप से ब्रह्म, और व्यष्टि-रूप से जीवात्मा कहा करते हैं। वस्तुत: देखने से यह विदित होगा कि यह आत्मा न तो जन्म धारण करता है और न मरता ही है; अर्थात यह नित्य और स्थायी है। परंतु कर्म-बन्धन में पड़ जाने के कारण एक नाम-रूप के नाश हो जाने पर उसी को दूसरे नाम-रूपों का प्राप्त होना टल नहीं सकता। आज का कर्म कल भोगना पड़ता है और कल का परसों; इतना ही नहीं, किंतु इस जन्म में जो कुछ किया जाये उसे अगले जन्म में भोगना पड़ता है– इस तरह यह भव-चक्र सदैव चलता रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देखो मभा. शां. 231.48,49 और गी. 8.18 तथा 19
  2. 4.1
  3. गी. र. 34
  4. यह बात नहीं कि पुनर्जन्म की इस कल्पना को केवल हिन्दूधर्म ने या केवल आस्तिक-वादियों ने ही माना हो। यद्यपि बौद्ध लोग आत्मा को नहीं मानते, तथापि वैदिकधर्म में वर्णित पुनर्जन्म की कल्पना को उन्होंने अपने धर्म में पूर्ण रीति से स्थान दिया है; और बीसवीं शताब्दी में “परमेश्वर मर गया” कहने वाले पक्के निरीश्वरवादी जर्मन पण्डित निटशे ने भी पुनर्जन्मवाद को स्वीकार किया है।उसने लिखा है कि कर्म-शक्ति के जो हमेशा रूपांतर हुआ करते हैं, वे मर्यादित हैं तथा काल अनंत है; इसलिये कहना पड़ता है कि एक बार जो नाम-रूप हो चुके हैं, वही फिर आगे यथापूर्व कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होते ही हैं, और इसी से कर्म का चक्र अर्थात बन्धन केवल आधिभौतिक दृष्टि से ही सिद्ध हो जाता है। उसने यह भी लिखा है कि यह कल्पना या उपपत्ति मुझे अपनी स्फूर्ति से मालूम हुई है! Nietzsche's Eternal Recurrence, (Complete Works, Engl. Trans, vol. XVI. pp. 235-256)

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प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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