गीता रहस्य -तिलक पृ. 178

गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक

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नवां प्रकरण
अध्यात्म

परस्तस्मातु भावोऽन्‍योऽव्यक्तोऽव्यक्तात् सनातन:। य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।।[1] [2]

पिछले दो प्रकरणों का सरांश यही है, कि, क्षेत्र-क्षे़त्रज्ञ-विचार में जिसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं उसी को सांख्य-शस्त्र में पुरुष कहते है; सब क्षर-अक्षर या चर-अचर सृष्टि के संहार और उत्‍पत्ति का विचार करने पर सांख्य-मत के अनुसार अन्त में केवल प्रकृति और पुरुष ये ही दो स्वतंत्र तथा अनादि मूलतत्त्व रह जाते है; और पुरुष को अपने सारे केशों की निवृति कर लेने तथा मोक्षानन्द प्राप्त कर लेने के लिये प्रकृति से अपना भिन्नत्व अर्थात कैवल्य जान कर त्रिगुणातीत होना चाहिये। प्रकृति और पुरुष का संयोग होने पर, प्रकृति अपना खेल पुरुष के सामने किस प्रकार खेला करती है इस विषय का क्रम अर्वाचीन सृष्टि-शास्त्रवेत्ताओं ने सांख्य शास्त्र से कुछ निराला बतलाया है; और संभव है, कि आगे अधिभौतिक शास्त्रों की ज्यों ज्यों उन्नति होगी, त्यों त्यों इस क्रम में और भी सुधार होते जावेंगें।

जो हो; इस मूल सिद्धान्त में कभी कोई फर्क नहीं पड़ सकता, कि केवल एक अव्यक्त प्रकृति से ही सारे व्यक्त पदार्थ गुणोत्कर्ष के अनुसार क्रम क्रम से निर्मित होते गये हैं। परन्तु वेदान्त केसरी इस विषय को अपना नहीं समझता—यह अन्य शास्त्रों का विषय है, इसलिये वह इस विषय पर वाद विवाद भी नहीं करता। वह इन सब शास्त्रों से आगे बढ़ कर यह बतलाने के लिये प्रवृत हुआ है, कि पिंड-ब्रह्मांड की भी जड़ में कौन सा श्रेष्ठ तत्त्व है और मनुष्य उस श्रेष्ठ तत्त्व में कैसे मिल जा सकता है अर्थात तद्रूप कैसे हो सकता है। वेदान्त-केसरी अपने इस विषय-प्रदेश में और किसी शास्त्र की गर्जना नहीं होने देता। सिंह के आगे गीदड़ की भाँति, वेदान्त के सामने सारे शास्त्र चुप हो जाते हैं। अतएव किसी पुराने सुभाषितकार ने वेदान्त का यथार्थ वर्णन यों किया हैः-

तावत गर्जन्ति शास्त्राणि जंबुका विपिने यथा। न गर्जति महाशक्तिः यावद्वेदान्तकेसरी।।

सांख्यशास्त्र का कथन है, कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार करने पर निष्पन्न होने वाला ‘द्रष्टा’ अर्थात पुरुष या आत्मा और क्षर-अक्षर सृष्टि का विचार करने पर निष्पन्न होने वाली सत्त्व-रज-तम-गुणमयी अव्यक्त प्रकृति ये दोनों स्वतंत्र हैं और इस प्रकार जगत के मूलतत्त्व को द्विधा मानना आवश्यक है। परंतु वेदान्त इसके आगे जा कर यों कहता है, कि सांख्य के ‘पुरुष’ निर्गुण भले ही हों, तो भी वे असंख्य हैं; इसलिये यह मान लेना उचित नहीं, कि इन असंख्य पुरुषों का लाभ जिस बात में हो उसे जान कर प्रत्येक पुरुष के साथ तदनुसार बर्ताव करने का सामर्थ्य प्रकृति में है। ऐसा मानने की अपेक्षा सात्त्विक तत्त्वज्ञान की दृष्टि से तो यही अधिक युक्ति-संगत होगा, कि उस एकीकरण की ज्ञान-क्रिया का अन्त तक निरपवाद उपयोग किया जावे और प्रकृति तथा असंख्य पुरुषों का एक ही परम तत्त्व में अविभक्त रूप् से समावेश किया जावे जो “अविभक्तं विभेक्तषु’’ के अनुसार नीचे से ऊपर तक की श्रणियों में देख पड़ती है और जिसकी सहायता से ही सृष्टि के अनेक व्यक्त पदार्थों का एक अव्यक्त प्रकृति में समावेश किया जाता है [3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ‘‘जो दूसरा अव्यक्त पदार्थ उस ( सांख्य ) अव्यक्त से भी श्रेष्ठ तथा सनातन है, और सब प्राणियों का नाश हो जाने पर भी जिसका नाश नहीं होता,’’ वही अंतिम गति है।
  2. गीता 8. 20
  3. गी.18.20-22

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गीता रहस्य अथवा कर्म योग शास्त्र -बाल गंगाधर तिलक
प्रकरण नाम पृष्ठ संख्या
पहला विषय प्रवेश 1
दूसरा कर्मजिज्ञासा 26
तीसरा कर्मयोगशास्त्र 46
चौथा आधिभौतिक सुखवाद 67
पाँचवाँ सुखदु:खविवेक 86
छठा आधिदैवतपक्ष और क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विचार 112
सातवाँ कापिल सांख्यशास्त्र अथवा क्षराक्षर-विचार 136
आठवाँ विश्व की रचना और संहार 155
नवाँ अध्यात्म 178
दसवाँ कर्मविपाक और आत्मस्वातंत्र्य 255
ग्यारहवाँ संन्यास और कर्मयोग 293
बारहवाँ सिद्धावस्था और व्यवहार 358
तेरहवाँ भक्तिमार्ग 397
चौदहवाँ गीताध्यायसंगति 436
पन्द्रहवाँ उपसंहार 468
परिशिष्ट गीता की बहिरंगपरीक्षा 509
- अंतिम पृष्ठ 854

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